भारतीय संस्कृति के ज्ञान और उसकी विविधता से पूरी दुनिया को परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद की आज 160वीं जयंती है। उनके जन्मदिन को भारत में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए सनातन धर्म को जिस अंदाज से प्रस्तुत किया, उससे पूरी दुनिया उनकी कायल होकर रह गईं। विवेकानंद ने अपने भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ के साथ की’, इस संबोधन ने वहां मौजूद हर व्यक्ति का दिल जीत लिया और तालियों की ऐसी जोरदार गड़गड़ाहट शुरू हुई जो उनके भाषण खत्म होने तक रूकी नहीं। इस ख़ास मौके पर जानिए महान संत व दार्शनिक स्वामी विवेकानंद जी के जीवन के बारे में…
स्वामी विवेकानन्द का प्रारंभिक जीवन
महान संत स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को पश्चिम बंगाल के कलकत्ता में हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में एक प्रसिद्ध वकील थे, जो पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी आध्यात्मिक विचारों की महिला थी, जो भगवान शिव की पूजा-अर्चना में अधिक समय व्यतीत करती थी। नरेन्द्र बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाले बालक थे।
उनका भी आध्यात्म की ओर अधिक झुकाव था इसलिए वह अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये, किन्तु वहां उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे। उनके पिता की मृत्यु वर्ष 1884 में होने के बाद घर की जिम्मेदारी का भार बालक नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। गरीबी में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे।
प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में एकमात्र प्रथम श्रेणी
वर्ष 1871 में नरेंद्र का आठ साल की उम्र में पढ़ने के लिए ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिल करवा दिया। वर्ष 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया, जो बाद में पुन: वर्ष 1879 में कलकत्ता वापस आ गए। वे एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम श्रेणी के अंक अर्जित किए। स्वामी विवेकानंद दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विषय पढ़ने के शौकीन थे।
उनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया। वर्ष 1881 में उन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और वर्ष 1884 में कला स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली।
25 साल की उम्र में संन्यास धारण किया
नरेंद्र ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बनाया। 16 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो गई थी। नरेंद्र ने अपना जीवन गुरुदेव श्री रामकृष्ण को समर्पित कर दिया और 25 साल की उम्र में नरेंद्र नाथ दत्त ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया और संन्यासी बन गए। इसके बाद स्वामी विवेकानंद भारत भर की यात्रा पर निकल गए थे।
खेतड़ी के राजा ने दिया स्वामी विवेकानंद नाम
नरेंद्र नाथ दत्त ने जब पूरे भारत में भारतीय दर्शन और वेदों का प्रचार-प्रसार करना शुरू किया तो उनकी मुलाकात माउंट आबू में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह से हुईं। नरेंद्र नाथ से आध्यात्मिक ज्ञान की बातें सुनकर राजा अजीत सिंह बहुत खुश हुए और उन्होंने नरेंद्र को अपने महल खेतड़ी में आने के लिए निमंत्रण दिया। उन्होंने राजा अजीत का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और 7 अगस्त, 1891 को भारत का भ्रमण करते हुए राजस्थान के खेतड़ी पहुंचे।
जहां पर राजा अजीत सिंह ने उनका शानदार स्वागत किया। नरेंद्र वहां पर कुछ दिन रुके। तब राजा ने नरेंद्र दत्त नाथ को पगड़ी बांधने का सुझाव दिया और राजस्थानी वेशभूषा पहनने को कहा। इस बात पर नरेंद्र नाथ राजी हो गए और तभी से उन्होंने पगड़ी बांधना चालू कर दिया था। यह देख कर राजा अजीत सिंह ने उनका नाम नरेंद्र से विवेकानंद रख दिया था, जिसका मतलब “समझदार ज्ञान का आनंद” था। स्वामी विवेकानंद वर्ष 1893 में शिकागो महासभा में भाग लेने के लिए अमेरिका गए, उनका सारा खर्च खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने वहन किया था।
जब स्वामी के लिए अमेरिकी लोगों ने खड़े हो तालिया बजाई
11 सितंबर, 1893 में शिकागो में हुई विश्वधर्म परिषद में स्वामी विवेकानंद ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया। यह वह भाषण था इस भाषण में उन्होंने सबसे पहले बोला “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” इस को सुनकर वह बैठे सभी लोगो ने खड़े होकर तालिया बजाईं। इस भाषण के बाद स्वामी विवेकानंद की ख्याति फैल गई, जिसके बाद वह 3 साल तक अमेरिका में रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान से परिचित करवाया।
स्वामी विवेकानंद की वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए अमेरिका के मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ का नाम दिया। ‘आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था। उन्होंने अमेरिका में रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेकों अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
ध्यानमग्न अवस्था में दुनिया को कहा अलविदा
भारत के गौरव को विश्व के सामने रखने वाले स्वामी विवेकानंद का 4 जुलाई, 1902 को बेलूर स्थित रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में देहांत हो गया। वह सदैव खुद को ‘गरीबों का सेवक’ कहा करते थे।
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