पुरूषों जितने ही वोट डालने की बाद भी औरतों को क्यों राजनीति में उतनी जगह नहीं दी जाती?

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भारत में लैंगिक असमानता जड़ों तक बसी हुई है। कहने को महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है लेकिन अभी भी पुरूषप्रधान समाज महिलाओं को पीछे खींचे हुए हैं। लेकिन लोकतंत्र में महिलाओं ने अपनी भागीदारी दर्ज की है। लोकतंत्र में ये भागीदारी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि महिलाएं खुद इसके लिए आगे आ रही हैं। लेकिन क्या ये भागीदारी किसी तरह का बदलाव हमारे समाज में ला सकी है? आइए आंकड़े निहार लेते हैं।

1950 में भारत की सिर्फ 38.5 महिलाएं वोट डाल रही थीं वहीं 1960 की बात करें तो ये बढ़कर 60 प्रतिशत तक पहुंच गई। ध्यान देने वाली बात ये है कि पुरूषों में ये बढ़ोतरी इन दस सालों में 4 प्रतिशत ही रही। अब आते हैं सन् 2000 के बाद में। 2004 में महिलाओं के मुकाबले लगभग 8 प्रतिशत अधिक पुरूषों ने वोट डाले वहीं ये अंतर 2014 में सिर्फ 1.8 प्रतिशत ही रह गया। यही नहीं 2014 में कई राज्य ऐसे भी थे जहां पर पुरूषों से ज्यादा महिलाओं ने वोट डाले। इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, मणिपुर, तमिलनाडु, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उड़ीसा समेत कुल 16 राज्य शामिल थे।

इन सब के बाद भी क्यों राजनीति में महिलाओं की भागीदारी दयनीय है? कुछ लोगों का मानना है कि इसका मुख्य कारण लैंगिक अनुपात है। 2001 की जनगणना के मुताबिक देखा जाए तो 1000 पुरूषों पर सिर्फ 943 महिलाएं हैं। इसके बाद मतदाता के तौर पर पंजीकरण भी पुरूषों के मुकाबले कम ही है।

लेकिन अब जब महिलाएं मतदान के मामले में पुरूषों के बराबर पहुंच आई हैं तो फिर भी राजनैतिक पार्टियां क्यों महिलाओं को मौका देने में पीछे रह जाती हैं?
राजनैतिक पार्टियां उसी को मैदान में उतारने में विश्वास रखती हैं जहां पर उन्हें वोट बैंक नजर आए।

ऐसे में ये समझने की जरूरत है कि वोट बैंक आखिर होता क्या है। वोट बैंक असल में लोगों का वो समुह होता है जो पर्टीकुलर किसी एक रानैतिक पार्टी में अपना हित देखता है और उसे वोट करता है। लेकिन इन लोगों को आपस में संगठित होना जरूरी होता है। ऐसे में क्या महिलाएं उतनी संगठित हैं?

कितनी महिलाएं एजुकेटेड हैं? अगर पढ़ लिख भी ले तो कितनी ऐसी हैं जो अपने स्वतंत्र विचार रखती हैं? राजनैतिक पार्टियां समझती हैं कि महिलाएं अपने घर के पूरूषों के हिसाब से ही वोट करेंगी ऐसे में उनको महिलाओं पर अलग से किसी भी तरह की मेहनत नहीं करनी पड़ती वे बस पुरूषों को लुभाने में लगे रहते हैं।

जमीनी हालात यही हैं लेकिन लोकतंत्र की इन सूनी गलियों में आज के वक्त कुछ शोर हुआ भी है। महिलाएं सामने आ भी रही हैं और शायद इसी कड़ी में नितिश कुमार का शराबबंदी का फैसला आता है। लेकिन अभी भी संसद में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है। स्थानीय निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। देश की आबादी में महिलाओं की भाग है 48.1 प्रतिशत और संसद में सिर्फ 12.1 प्रतिशत।

कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों ने उम्मीदवारों की जो लिस्ट जारी की है उसमें पहले से कुछ नया मालूम नहीं चलता है। प्रियंका गांधी “मेरी बहनों और भाइयो” से अपना भाषण शुरू करती हैं लेकिन वे महिलाओं के लिए कितनी खड़ी हो पाती हैं ये आने वाला वक्त ही बताएगा।

ये दुर्भाग्य की बात ही है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी महिलाओं का नेतृत्व खुद महिलाएं भी करने में कुछ खास नहीं कर पाई हैं। वे महिलाओं को संगठित नहीं कर पाई हैं और ना ही अलग से महिलाओं के विकास पर किसी तरह का ध्यान दिया गया।

मायावती, ममता बनर्जी को अपनी नीतियों से दिल्ली की राजनीति की ओर अपना जोर लगाते हुए तो देखा गया लेकिन कहीं ना कहीं वे उन नीतियों पर काम नहीं कर सकीं जो महिला केंद्रित हों।

महिलाओं को लुभाने की कोशिशें लगभग हर पार्टी ने की है। फिर चाहे वो बिहार में ग्रेजुएशन करने वाली महिला को साइकिल और 25 हजार की राशि हो या कर्नाटक की शादी भाग्य योजना। लेकिन इन्होंने सिर्फ लुभाने का काम किया। महिला विकास में एक स्थायी योगदान शायद नहीं दिया गया।

कहने को फिलहाल की सरकार ने भी खूब काम किया है जिसमें तीन तलाक पर बीजेपी का रूख हो। ऐसे में वो मुस्लिम वोट बैंक को कहीं तोड़ते दिखे। इसी कड़ी में सिलेंडर और महिला ई हार्ट स्कीम भी ग्राउंड लेवल पर महिलाओं के हित में दिखाई गईं।

लेकिन ये सतह तक ही सीमित रहीं। ऐसा कोई भी कदम नहीं देखा गया जहां पर माहौल ऐसा हो कि महिलाएं खुद अपने निर्णय लेने की भूमिका में आ सके।
एक राहत ममता बनर्जी की तरफ से मिलती है। उन्होंने अपने उम्मीदवारों में 41 प्रतिशत महिला भागीदारी सुनिश्चित की है। महिला आरक्षण विधेयक एक बड़ी उम्मीद लेकर आ सकता है।

अगर ये पारित हो जाए तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो बढ़ेगा ही उसी के साथ नीतियां ऐसा दिखाई देंगी जो महिला केंद्रित हों। महिलाओं का आगे बढ़ना इसलिए भी जरूरी है कि निर्णय जो वो नीतियों के साथ लेंगी तो वो अधिक उदारवादी होगा। ऐसा हम नहीं कह रहे शोध ही बताते हैं कि महिलाएं अधिक उदारवादी होती हैं। ऐसे में महिलाओं का हाथ स्वास्थ्य, बाल विकास, शिक्षा आदि पर मजबूत होगा।

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