क्यों पुलवामा हमला किसी पार्टी के लिए गेम चेंजर साबित नहीं हो सकता?

Views : 2742  |  0 minutes read

14 फरवरी 2019 तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की मुश्किलें काफी बढ़ी हुई थीं। दिसंबर 2018 में एक बड़ा झटका बीजेपी को तब लगा जब विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था।

बताया जाता है कि इन तीन राज्यों में भाजपा की हार क्षेत्रीय, जातिगत और व्यावसायिक विभाजन की वजह से हुई। बीजेपी ने इन राज्यों में 2013 के चुनावों में जीत दर्ज की थी। वास्तव में इसी चुनावी चक्र के साथ नरेंद्र मोदी की लहर की शुरुआत हुई जिसने 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को बहुमत में पहुंचा दिया।

हालाँकि इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि जम्मू-कश्मीर में 14 फरवरी 2019 को सीआरपीएफ जवानों पर हुए आत्मघाती हमले ने राजनीतिक माहौल को बदल दिया है। देश में बड़ी पीड़ा के बीच भारतीय वायु सेना ने 26 फरवरी, 2019 को पाकिस्तानी क्षेत्र में एक आतंकी शिविर पर हमला किया। कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस कार्रवाई ने भाजपा को अपने विरोधियों पर निर्णायक बढ़त दी है क्योंकि मतदाता राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता दे सकते हैं। और भाजपा को हुए घाटे को लोग भूल सकते हैं।

बालाकोट में हवाई हमलों के बाद के राजनीतिक घटनाक्रम से यह भी संकेत मिलता है कि भाजपा इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण करना चाहती है। हवाई हमलों में सटीक नुकसान और हताहत होने का सबूत लेने की कोशिश कर रहे विपक्ष के सवालों को अलग तरीके से दिखाया गया और ये दिखाने की कोशिश की गई कि विपक्ष सशस्त्र बलों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है।

Pulwama_terror_attack
Pulwama_terror_attack

विपक्ष को राष्ट्रविरोधी दिखाने की कोशिश करने वाली भाजपा की बड़ी डिजाइन पर पहले भी राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा टिप्पणी की गई है। उदाहरण के लिए सुहास पलशीकर ने अगस्त 2018 में आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक लेख में लिखा था कि बेशक, शुरू से ही, हिंदुत्व ने राष्ट्रवाद से मिलने दावा किया है। लेकिन जब से वह राष्ट्रीय परिदृश्य पर दिखाई दिए मोदी ने हिंदुत्व के बारे में कम और राष्ट्रवाद के बारे में अधिक बात की है। इस बदलाव ने न केवल उनके व्यक्तिगत नेतृत्व को बढ़ाया बल्कि एक ऐसा राष्ट्रवाद बना जिसमें विकास, राष्ट्रीय शक्ति और हिंदुत्व को एक साथ रखा जा सका।

सवाल यह है कि क्या इस तरह के ध्रुवीकरण से आगामी आम चुनावों में भाजपा को मदद मिल सकती है। पहले हमें यह समझना होगा कि क्या सैन्य कार्यवाही का असर सक्रिय राजनीति में पड़ सकता है या नहीं। क्या 2019 का चुनाव पहले से अलग होगा जहां भाजपा चुनावों को राष्ट्रवादी और “राष्ट्र विरोधी” ताकतों के बीच ध्रुवीकरण में बदलने की कोशिश कर रही है?

शायद भारत के दो चुनाव जिनमें सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण हुआ उनमें उत्तर प्रदेश का 1993 विधानसभा चुनाव और 2002 में गुजरात में विधानसभा चुनाव को माना जा सकता है। 1993 के उत्तर प्रदेश के चुनाव बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हुए थे।

2002 के गुजरात चुनाव गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के महीनों बाद हुए थे। इन दोनों चुनावों में भाजपा लगातार पार्टी थी और देखा गया था कि विपक्ष द्वारा एक ध्रुवीकरण के लिए मजबूर किया गया था।

भाजपा ने इन दोनों चुनावों में अपना पिछला वोट शेयर बढ़ाया। इससे पता चलता है कि ध्रुवीकरण ने भाजपा के पक्ष में काम किया है। लेकिन उत्तर प्रदेश में इसकी सीट की हिस्सेदारी कम हो गई जबकि गुजरात में यह बढ़ गई।

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाजपा को उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन का सामना करना पड़ा था। दूसरे शब्दों में भाजपा की ओर से जिस ध्रुवीकरण में बढ़ोतरी होती है वो शायद विपक्ष की ओर भी एक काउंटर ध्रुवीकरण को जन्म देती है।

इसमें एक महत्वपूर्ण सबक ये है कि कैसे ट-शेयर में हुआ बदलाव से सीट-शेप में बदलाव का पता करना मुश्किल है।

यह सवाल है कि पुलवामा आतंकवादी हमले से पहले भाजपा और उसके विरोधियों के समर्थन का स्तर क्या था? ध्रुवीकरण और काउंटर-ध्रुवीकरण का चुनावी प्रभाव जो पुलवामा के बाद में हो सकता है, गंभीर रूप से इन आधार स्तरों पर निर्भर करेगा।

COMMENT