दिल्ली : मुफ्त की मेट्रो कहकर विरोध करने वाले लैंगिक असमानता पर गला क्यों नहीं फाड़ते!

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दिल्ली सरकार ने आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले दिल्ली वालों को खासकर महिलाओं को एक खास सौगात दी है। सरकार के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी में महिलाएं डीटीसी बसों, क्लस्टर बसों और दिल्ली मेट्रो में फ्री में सफर कर सकती हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल का कहना है कि इस योजना के जरिए हम महिलाओं की भागीदारी श्रम में बढ़ेगी और पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

हालांकि जो महिलाएं सरकारी नियमानुसार टिकट खरीद सकती है या खरीदना चाहती है वो अपने सफर का खर्च उठा सकती हैं। इसके दूसरी तरफ घोषणा होने के बाद लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएं सामने आ रही है। कुछ इसे चुनावी ढ़कोसला बता रहे हैं तो किसी ने वोट पाने का लालच करार दिया। वहीं कुछ लोगों ने इस घोषणा के साथ लैंगिक भेदभाव को जोड़कर एक नई बहस शुरू कर दी।

ऐसे में आज हम लैंगिक भेदभाव की बात करने वालों के लिए कुछ काम की बात लेकर आएं हैं। विश्व आर्थिक मंच ने कुछ समय पहले वैश्विक लैंगिक समानता सूचकांक (इंडेक्स) जारी किया जिसमें 129 देशों में भारत 95वें पायदान पर है।

जबकि पिछले साल भारत को 108वां स्थान मिला था लेकिन उस दौरान इस लिस्ट में 144 देश शामिल थे। मालूम हो कि यह रिपोर्ट महिलाओं की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, शिक्षा, कार्यस्थल पर बराबरी और राजनीति में योगदान के आधार पर डेटा लेकर तैयार की जाती है।

सबसे खराब क्षेत्र जिसमें महिलाओं की मौजूदगी ना के बराबर है वो देश की संसद है जहां 2018 में महिलाएं महज 11.8 प्रतिशत थी। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट सिर्फ 4 प्रतिशत महिलाएं हैं।

रिपोर्ट में भविष्य को लेकर यह कहा गया है कि 2030 तक दुनिया का कोई भी देश लैंगिक समानता के दौर में नहीं पहुंच सकता है। पड़ोसी देश जैसे चीन, श्रीलंका और भूटान ने भी भारत से काफी अच्छा प्रदर्शन किया है।

कार्यस्थल पर महिलाओं की बराबरी बेमानी सी लगती है !

रिपोर्ट के मुताबिक अगर हम कामकाजी महिलाओं की बात करें तो कार्यस्थल पर महिलाओं की संख्या ना के बराबर है। इसके अलावा 62 फीसदी महिलाओं का मानना है कि वेतन समानता की बात किसी के लिए मुद्दा बनती ही नहीं है।

वहीं अगर हम कार्यस्थल पर महिलाओं की बराबरी की बात करें तो 53 फीसदी महिलाएं मानती हैं कि उनका कार्यस्थल आज भी पुरुष प्रधान है। वहीं काम का बंटवारा भी भेदभावपूर्ण तरीके से किया जाता है। पुरूष प्रधान कार्यस्थल होने से महिलाओं को पदोन्नति के भी कम अवसर मिलते हैं।

इसके आगे अगर हम महिलाओं के साथ होने अपराध, घरेलू हिंसा, स्वास्थ्य, शिक्षा पर आंकड़ों में बात करेंगे तो तस्वीर औऱ भयावह दिखने लग जाएगी।

आंकड़ों से हटकर अगर हम वर्तमान स्थिति की बात करें तो इसके विपरीत हमारे देश में महिलाओं को मिलने वाला 33 प्रतिशत आरक्षण बिल अभी तक पारित नहीं हुआ है। 1996 से यह बिल अटका हुआ है। इसके अलावा हाल में चुनी गई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैबिनेट के 57 सदस्यों में सिर्फ 6 महिलाएं हैं।

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