इंग्लिश मीडियम पढ़ाई सिर्फ अमीर लोगों के लिए ही क्यों हो?

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लोकसभा चुनावों में एक बड़ी जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी को लेकर पहला विवाद हिन्दी भाषा को लेकर छिड़ा है। सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक मसौदा तैयार किया था जो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख कृष्णस्वामी कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित था। इस ड्राफ्ट में कहा गया कि तीन भाषाओं के फॉर्मूले को लागू किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया कि बच्चों को अपने राज्य की भाषा, दूसरी इंग्लिश और इसके अलावा दूसरे किसी राज्य की भाषा भी सिखानी चाहिए।

दक्षिण भारत में विरोध के बाद मसौदे को ‘संशोधित’ कर दिया गया और तीन-भाषा वाली नीति को समाप्त कर दिया गया और कहा गया था कि हिंदी उन राज्यों पर लागू नहीं होगी जो इसे अनिवार्य रूप से पढ़ाना नहीं चाहते।

मसौदा में कहा गया था कि हिंदी भाषी राज्यों में बच्चों को भारत के कुछ अन्य भाषाई क्षेत्र से दूसरी भाषा सीखनी होगी। दक्षिण भारतीय राज्यों जैसे तमिलनाडु को भी अंग्रेजी और तमिल के अलावा दूसरे राज्य की एक और भाषा भी पढ़ानी चाहिए। यह भाषा दक्षिण भारत की हो सकती है जो मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, बंगाली, असमिया, ओडिया या यहाँ तक कि हिंदी या उर्दू भी हो सकती है।

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता इस बात से चिंतित हैं कि दक्षिण भारत के उनके अपने मंत्री शायद हिंदी बोलने में उतने सहज नहीं हैं। हाल के शपथ ग्रहण समारोह में भी इसकी झलक मिलती है। निर्मला सीतारमण और सदानंद गौड़ा ने अंग्रेजी में शपथ ली। इन सब के बाद भाजपा शायद ही हिन्दी को सभी पर थोपने के बारे में सोच सके। फिर सरकार इस नीति के साथ तो नहीं आई मगर एनडीए सरकार ने तीन भाषा वाला फोर्मूला चुना।

इसी के साथ यह ध्यान देने वाली बात होगी कि ऐसा पहली बार हो सकता है जब भाजपा की शिक्षा नीति इस विचार का समर्थन करती है कि सभी सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी सिखाई जानी चाहिए। बहरहाल सरकार की योजना में सरकारी स्कूल अंग्रेजी को सिर्फ एक अन्य विषय के रूप में मानते हैं जबकि शिक्षा का माध्यम प्रत्येक राज्य की भाषा के हिसाब से होगा।

निजी स्कूलों में कांग्रेस शासन की एजुकेशन पॉलिसी ने स्कूलों को विदेशी भाषाओं को पढ़ाने की अनुमति दी। अब चूंकि दो भारतीय भाषाओं को पढ़ाया जाना चाहिए हो सकता है कि बच्चों के पास फ्रेंच या जर्मन सीखने का समय ना हो।

यह सरकार भी मानती है कि अंग्रेजी एक मुख्य भाषा है जिसे स्कूल में प्रत्येक बच्चे को पढ़ाने की आवश्यकता है। यह पूरी तरह से सिखाया जाएगी लेकिन केवल निजी और अंग्रेजी-माध्यम स्कूलों में। सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को एक सब्जेक्ट के रूप में पढ़ाया जाएगा।

भाजपा ने एक प्रगतिशील कदम उठाया है जो सभी भारतीय स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने की भी अनुमति दे रहा है। यह निश्चित रूप से राममनोहर लोहिया के समाजवादी अखिल हिंदी या भारतीय-भाषा नीति से बेहतर है। लोहिया के समाजवाद के अनुसार गरीबों को क्षेत्रीय भाषा में ही फंसे रह जाना चाहिए।

कम्युनिस्टों ने भारत में जहाँ भी शासन किया इस नीति को अधिक भावना के साथ लागू किया। लगभग 40 लाख की आबादी वाला राज्य त्रिपुरा सबसे अच्छा उदाहरण है। कॉमरेड माणिक सरकार अंग्रेजी बोलते हैं। उन्होंने निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को मंजूरी दी ताकि अमीर बच्चे पूरे भारत और दुनिया में खुद के लिए नौकरियों का प्रबंधन कर सकें जबकि सरकारी स्कूलों में बंगाली- या कोकबोरोक-मीडियम रखीं ताकि वे 40 लाख के गैर-औद्योगिक अर्ध-आदिवासी अर्थव्यवस्था के भीतर थोड़ा बेहतर वेतन पाने वाले मज़दूर बने रहे सकें।

यह उनके 25 साल के शासन के दौरान हुआ। चूंकि त्रिपुरा में कोई भी आदिवासी पुरुष या महिला अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल सकते और मार्क्स और लेनिन के बारे में बात तक नहीं कर सकते इसलिए राज्य की 34% आबादी होने के बावजूद कोई भी आदिवासी पोलित ब्यूरो सदस्य नहीं बन सकता था।

इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा को कामकाजी जनता से दूर रखा गया। भद्रलोक कामरेडों ने निजी अंग्रेजी माध्यम की स्कूल शिक्षा की अनुमति दी क्योंकि उनके पास उच्च शुल्क का भुगतान करने के लिए पैसे हैं। लेकिन ग्रामीण बंगाल को पीछे की ओर धकेला गया जब अंग्रेजी विषय को सिर्फ एक सब्जेक्ट के रूप में पढ़ाया जाने लगा। बंगाल से भी जहां SC / ST / OBC की आबादी 65% तक है फिर भी इन समुदाय से आपको एक पोलित ब्यूरो सदस्य खोजने में मुश्किल होगी क्योंकि वे अंग्रेजी की किसी भी शिक्षा से वंचित हैं।

सेंट स्टीफन में अपनी पढ़ाई करने वाले राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बनने के बाद भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में निजी और सरकारी स्कूलों में शिक्षा का एक समान माध्यम का वादा नहीं किया। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि सरकारी क्षेत्र में क्षेत्रीय भाषा और निजी क्षेत्र में अंग्रेजी मीडियम का वर्तमान मॉडल नेहरूवादी नीति की विरासत है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सभी धर्मनिरपेक्ष, लिबरल कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी इस दो भाषा नीति के साथ पूरी तरह से संतुष्ट थे। यही कारण है कि “खान मार्केट” और “मंडी-बाज़ार” दो अलग दुनिया हैं। अब भाजपा कहीं ना कहीं इसी नीति के साथ एक बदलाव से सहमत है। इसमें अब यह बदलाव सामने आया है कि सबसे बड़ी निजी स्कूलों में पढ़ाई जा रही विदेशी भाषाओं को एक और क्षेत्रीय भारतीय भाषा सिखाने की आवश्यकता के कारण हटा दिया जाएगा।

पहले हमारे पास नेहरूवादी शिक्षा नीति थी जहाँ खान मार्केट गिरोह अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते थे और मंडी-बाजार जनता हिंदी या क्षेत्रीय भाषा-माध्यम स्कूलों में पढ़ते थे। अब हमारे पास एक ‘भारतीय’ शिक्षा नीति है जहाँ स्मृति ईरानी और उनके कट्टर दुश्मन प्रियंका गांधी के बच्चे एक ही ‘खान मार्केट’ कॉलेज में पढ़ते हैं जबकि सभी मंडी-बज़ार के बच्चे हिंदी माध्यम के कॉलेज में पढ़ते हैं ताकि वे चौकीदार और चायवाले बन सकें। उन्हें कभी स्कूल में अंग्रेजी सीखने का मौका नहीं मिला।

जब अंग्रेजी एक अखिल भारतीय भाषा है तो इसे भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी जानी चाहिए और सरकारी स्कूलों में अधिक विषयों में अंग्रेजी को क्यों शामिल नहीं किया जाना चाहिए? हमें महसूस करना चाहिए कि अंग्रेजी पहले से ही भारतीयों की मातृभाषा बन गई है। क्षेत्रीय भाषाएं चावल क्षेत्र कार्यकर्ता की मातृभाषा हैं। संघ परिवार तक के बच्चे अब अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में हैं।

ऐसी स्थिति में दो भाषा नीति एक अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा को क्यों न अपनाया जाए? और आदिवासी क्षेत्रों के सभी बच्चों को ये अधिक सख्ती से पढ़ाएं?

भारत के अलावा भविष्य में लोग अन्य क्षेत्रों के लोगों से अंग्रेजी में बात कर सकते हैं जबकि उनके राज्य के भीतर वे अपनी क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी दोनों बोल सकते हैं। यही तमिलनाडु कर रहा है।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने पहले ही तेलुगु में एक अनिवार्य विषय के साथ सभी सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी-माध्यम बनाने का वादा किया है। अगर वह ऐसा करता है, तो आंध्र प्रदेश एक मॉडल राज्य होगा।

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