बार-बार अपमान सहने के बाद भी भाजपा शिवसेना के साथ गठबंधन में क्यों रहना चाहती है?
इसका सवाल का सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है और वो है “मजबूरी”। उत्तर प्रदेश की स्थिति तेजी से सपा और बसपा के एक साथ आने से बदल रही है। ऐसे में भाजपा को एक ऐसे राज्य की सख्त जरूरत है जो केंद्र में सत्ता बनाए रखने में उनकी मदद कर सके। लोकसभा में 80 सीटों के साथ यूपी सबसे महत्वपूर्ण राज्य है तो महाराष्ट्र भी 48 सीटों के साथ काफी जरूरी राज्य नजर आता है। ऐसे में जब उत्तर प्रदेश भाजपा के हाथों से जाता दिख रहा है तो महाराष्ट्र बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण है।
2014 में 80 में से 73 सीटों (अपने सहयोगी दल के साथ) के बाद भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाना लगभग असंभव है। (एनडीए के पास अब यूपी में 70 सीटें हैं, कैराना, फूलपुर और गोरखपुर में लोकसभा उपचुनावों में बीजेपी की हार हुई)
इसी कारण भाजपा को अपने सबसे पुराने सहयोगियों में से एक शिवसेना के साथ रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 2014 में, भगवा गठबंधन ने 48 में से 41 सीटों पर जीत हासिल की जिसमें शिव सेना को 18 सीटें मिलीं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा के 27% के मुकाबले शिवसेना ने 20.82% वोट हासिल किए।
यदि सहयोगी दलों को अलग से चुनाव लड़ना होता है तो निस्संदेह शिवसेना की बड़ी हार होगी लेकिन इससे भाजपा को भी नुकसान होगा। ऐसे समय में जब कांग्रेस (2014 में 18.29%) और एनसीपी (16.12%) ने पहले ही एक संयुक्त मोर्चा बना लिया है, यह एक ऐसा झटका है जिसे भाजपा बर्दाश्त नहीं कर सकती है।
क्या इसका मतलब यह है कि एक शक्तिशाली राष्ट्रीय पार्टी ने एक मामूली क्षेत्रीय शिव सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है?
आपको ऐसा लग सकता है कि बीजेपी ने शिव सेना के आगे घुटने टेक दिए लेकिन ऐसा वास्तव में है नहीं। जो लोग शिवसेना की स्विंग की राजनीति से परिचित हैं उन्हें ये बात आसानी से समझ आ सकती है। कई मौकों पर इसको लेकर बात हुई है इसके बावजूद बीजेपी-शिव सेना गठबंधन टूटना कभी हुआ ही नहीं।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से लेकर पार्टी प्रमुख अमित शाह तक का भाजपा नेतृत्व पूरी तरह से शिवसेना के सीमित विकल्पों से वाकिफ था और इसलिए बीजेपी शिव सेना की आलोचनाओं और उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं देती या उनकी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास नहीं करता। भाजपा जानती है कि शिवसेना को इससे ज्यादा खतरा हो सकता है। शिव सेना और बीजेपी को साथ में रहकर जिस दर्द का सामना कर रहीं हैं वो दर्द अलग होने से और ज्यादा बढ़ेगा।
लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना इतना मैदान क्यों खो चुकी है?
इसका जवाब महाराष्ट्र में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थिति में है जिससे उबरने की शिवसेना पूरी कोशिश कर रही है। शिव सेना हमेशा से ही मराठियों को बाहर से नौकरी के लिए आए लोगों के हमले से बचाने का डंका बजाती रही है।
शिव सेना की Sthaniya Lokadhikar समिति ने बहुराष्ट्रीय निगमों, बड़े औद्योगिक घरानों और यहां तक कि सार्वजनिक उपक्रमों में बेरोजगार मराठी युवाओं को रोजगार दिया और मराठी घरों में बेहद लोकप्रिय हैं। साठ और सत्तर के दशक में मराठी युवाओं ने शिव सेना में वापसी की।
1982 में मुंबई में मिलों की हड़ताल के बाद चीजें बदल गईं। मिल मालिकों ने मुख्य रूप से गुजरातियों और मारवाड़ी लोगों ने फायरब्रांड मजदूर नेता दत्ता सामंत की अपील को बेअसर करने के लिए सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का इस्तेमाल किया। इस हड़ताल ने मुंबई की स्थिति और सेना के राजनीतिक चरित्र दोनों को बदल दिया। मुंबई ने राज्य में अन्य जगहों पर काम करने वाले महाराष्ट्रियन मिल श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन को देखा। जिसके बाद शिव सेना में लोगों के रुझान में कमी आई।
शिवसेना ने इसका सामना कैसे किया?
शिव सेना इसके बाद हिंदुत्व की ओर बढ़ी। अस्सी के दशक में, जैसा कि भाजपा ने राष्ट्रीय मंच पर हिंदुत्व की राजनीति का उद्घाटन किया शिव सेना ने भी इसमें काम शुरू कर दिया। बीजेपी को एक क्षेत्रीय साथी की तलाश की और प्रमोद महाजन जैसे कुशल मैचमेकर द्वारा निर्देशित शिव सेना बीजेपी के लिए बेहतरीन थी। शिवसेना ने रामजन्मभूमि आंदोलन का खुलकर समर्थन करते हुए अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर जोर दिया और बाबरी मस्जिद के विनाश का श्रेय भी लिया।
1995 के विधानसभा चुनावों में, उनके गठबंधन ने महाराष्ट्र में पहली बार कांग्रेस का नेतृत्व किया और 1999 तक सत्ता में रहे। पहले मनोहर जोशी और फिर मुख्यमंत्री के रूप में सेना के नारायण राणे रहे। 1999 में, जब लोकसभा चुनावों के साथ-साथ राज्य के चुनाव हुए तो सहयोगी दलों ने फैसला किया कि शिवसेना विधानसभा में 171 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि भाजपा के लिए 117 सीटें रहेंगी और भाजपा केंद्र में वरिष्ठ भागीदारी होगी। यह गठबंधन हार गया लेकिन सहयोगी एक साथ रहे।
मुख्य रूप से क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सबसे महत्वपूर्ण बात, महाजन ने बाल ठाकरे के साथ एक बेहतरीन तालमेल स्थापित किया था। उन्होंने 2004 के चुनाव भी 171-117 के फॉर्मूले पर लड़े लेकिन फिर हार गए और केंद्र में एनडीए भी हार गई।
उनका संबंध क्यों और कब बिगड़ गया?
नरेंद्र मोदी के उदय ने असली अंतर पैदा किया। मोदी के आगमन तक भगवा शिविर में केवल एक “हिंदू हृदय सम्राट” था और वो था ठाकरे। 2012 में बीमार पड़े शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का निधन हो गया और जैसे ही भाजपा का विस्तार हुआ, उसने सेना के स्थान में कटौती कर दी।
भाजपा के नए नेतृत्व ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह साझा करने और सहयोग करने में विश्वास नहीं करता है। इसके नारे “शत प्रतिशत भाजपा” ने शिवसेना को झकझोर दिया और शिव सेना को इससे असुरक्षा महसूस हुई है।
यदि शिवसेना बीजेपी से खुद को अलग करती है तो दो-तरफा विभाजन का सामना करने की संभावना है। शिवसेना का एक वर्ग भाजपा में शामिल हो जाएगा जबकि कांग्रेस और एनसीपी आक्रामक रूप से आगे बढ़ेंगी। शिवसेना का प्रवासी विरोधी रुख कांग्रेस और एनसीपी के लिए अछूत है। शिवसेना के पास बहुत कम विकल्प हैं और भाजपा के साथ उसका गठबंधन इसलिए ही बचा हुआ है।