भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, महान विचारक एवं प्रसिद्ध गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे की आज 11 सितंबर को 128वीं जयंती है। विनोबा ने ‘भूदान आंदोलन’ का नेतृत्व किया था। वह महात्मा गांधी के परम अनुयायी थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन गरीबों और पिछड़े वर्ग के उत्थान में लगाया था। आचार्य विनोबा भावे ने वेद, वेदांत, रामायण, गीता, कुरान, बाइबिल आदि धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया। साथ ही अपने जीवन में इनका चिंतन भी किया। इस अवसर पर जानिए विनोबा भावे के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
आचार्य विनोबा भावे का जीवन परिचय
विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोड गांव में हुआ था। उनका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। उनके पिता का नाम नरहरि शंभू राव और माता रुक्मिणी देवी था। विनोबा की माता धर्म परायण महिला थीं। उनकी माता का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा और उनका झुकाव अध्यात्म की ओर अधिक रहा था। उनकी पढ़ाई के प्रति रुचि थी लेकिन वह परम्परागत शिक्षा से अधिक प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने सामाजिक जीवन छोड़ दिया और हिमालय की यात्रा पर निकल गए और पूरे देश का भ्रमण किया। इस दौरान उन्होंने कई क्षेत्रीय भाषाएं सीखी, जबकि उन्हें संस्कृत का अच्छा ज्ञान था।
गांधीजी का BHU में भाषण सुना तो पूरा जीवन ही बदल गया
वर्ष 1916 में जब विनोबा भावे इंटरमीडिएट की परीक्षा देने जो रहे थे, तब ही उन्होंने पहले के सर्टिफिकेट जला दिए। उन्होंने इस वर्ष गांधीजी का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भाषण सुना तो उनका पूरा जीवन ही बदल गया। तब से ही वह गांधीजी के अनुयायी बन गए। बाद में भावे ने गांधीजी से पत्र व्यवहार किया। इससे गांधीजी भी भावे से प्रभावित हो गए। उन्हें अहमदाबाद के कोचरब आश्रम में बुला लिया।
विनोबा भावे ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया था। भावे गांधी आश्रम आ गए और आश्रम की गतिविधियों में भाग लेने लगे। उन्होंने शिक्षण, अध्ययन, कताई जैसी गतिविधियों में भाग लिया। गांधीजी के खादी ग्रामोद्योग, नई शिक्षा, स्वच्छता से संबंधित रचनात्मक कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता बढ़ी। इसी आश्रम में उन्हें विनोबा भावे नाम से पुकारा जाने लगा।
देश की आजादी में योगदान
आचार्य विनोबा भावे ने गांधीजी के प्रभाव में आकर देश के स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वर्ष 1920 से 1930 तक हुए आंदोलन मेें वह कई बार जेल भी गए। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान विनोबा खुद चरखा कातते थे और दूसरों से भी ऐसा करने की अपील करते थे। उन्हें 6 महीने के लिए महाराष्ट्र के धुलिया स्थित जेल भेजा गया था, जहां उन्होंने कैदियों को मराठी में ‘भगवद गीता’ पढ़ाया।
वर्ष 1940 को महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया तो इस आंदोलन के लिए पहले सत्याग्रही के रूप में आचार्य विनोबा भावे को चुना गया। इससे उन्हें पूरे देश में पहचान मिली। वर्ष 1942 में उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें तीन साल के लिए वेल्लोर और सिओनी की जेल में कारावास की सजा काटनी पड़ी थी। उन्होंने दक्षिण भारतीय भाषाएं सीखी और ‘लोक नगरी’ पुस्तक लिखीं।
विनोबा भावे का ‘भूदान आंदोलन’
विनोबा भावे के मन में ‘भूदान आंदोलन’ का विचार वर्ष 1951 में तब जन्मा, जब वह आन्ध्र प्रदेश के गांवों में भ्रमण कर रहे थे। 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव में उनकी मुलाकात कुछ हरिजनों से हुईं। उन लोगों ने अपने जीवनयापन के लिए उनसे करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया। उन्होंने गांव के जमींदारों से आगे बढ़कर हरिजनों के लिए जमीन दान करने का आग्रह किया। इस पर रामचंद्र रेड्डी नामक एक जमींदार ने अपनी जमीन उन्हें दान करने का प्रस्ताव रखा। इस घटना के बाद देश में त्याग और अहिंसा का एक नया अध्याय जुड़ गया। यहीं से भूदान आंदोलन की शुरूआत हुई और यह अगले 13 वर्षों तक चला।
भावे के भूदान आन्दोलन से प्रेरित होकर हरदोई जनपद के सर्वोदय आश्रम टडियांवा द्वारा उत्तर प्रदेश के 25 जनपदों में श्री रमेश भाई के नेतृत्व में ऊसर भूमि सुधार कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाया गया। विनोबा भावे ने वर्ष 1975 में पूरे वर्ष भर मौन व्रत रखा। वर्ष 1979 के एक आमरण अनशन के परिणामस्वरूप सरकार ने समूचे भारत में गो-हत्या पर निषेध लगाने हेतु क़ानून पारित करने का आश्वासन दिया। विनोबा भावे का जीवन-दर्शन ‘भूदान यज्ञ’ (1953) नामक एक पुस्तक में संग्रहीत एवं प्रकाशित किया गया है।
पुरस्कार और सम्मान
विनोबा भावे को वर्ष 1958 में प्रथम रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1983 में भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
आचार्य विनोबा का निधन
आचार्य भावे ने वृद्धावस्था में अन्न-जल त्याग दिए थे, जिससे 15 नवम्बर 1982 को वर्धा में उनका निधन हो गया।
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