सुप्रीम कोर्ट के वो 3 फैसले जिन्होंने ST, SC और OBC वर्गों का विश्वास हिला कर रख दिया ?

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भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसी संस्था के रूप में माना जाता है जो नागरिक स्वतंत्रता का बचाव करते हुए दमनकारी सामाजिक सिस्टम के खिलाफ हाशिए पर रहने वाले लोगों की रक्षा के लिए काम करता है। सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मान्यता दी, एलजीबीटी अधिकारों को मान्यता दी और पिछले डेढ़ साल में फैसले सुनाते हुए सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की एंट्री के आदेश दिए। लेकिन हम बात कर रहे हैं पिछले साल सुनाए गए तीन ऐसे फैसले जिन्होंने संविधान की उस सुरक्षात्मक दीवार को तोड़ा है जो समाज में हाशिए पर मौजूद लोगों और सामाजिक अन्याय के बीच खड़ी थी।

इसकी शुरुआत जस्टिस ए.के. गोयल और यू.यू. ललित के एससी/एसटी एक्ट पर सुनाए गए फैसले से हुई जिसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन ने SC/ST में प्रमोशन का फैसला सुनाया और अब जस्टिस यू.यू. ललित और इंदु मल्होत्रा ने यूनिवर्सिटी फैकल्टी में एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण पर फैसला सुनाया है।

दलितों के दो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे इन फैसलों से खासा प्रभावित हुए- सामाजिक उत्पीड़न, अत्याचारों से सुरक्षा और समाज में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व।

इस तरह के फैसले निरंतर कठिनाइयों का सामना कर रहे दलितों और पिछड़े समुदायों को एक संवैधानिक संस्कृति का हिस्सा बनाने में कहीं ना कहीं असफल रहे हैं। दलित तबके के लोगों को आज भी यह विश्वास है कि सरकारें और अदालतें उनके प्रतिनिधित्व और सम्मान के संवैधानिक वादे की रक्षा करेंगी।

अत्याचारों की सीमाएं पार?

पहला फैसला जो न्यायमूर्ति ए.के. गोयल (अब रिटायर्ड) और यू.यू. ललित ने दिया जिसके मुताबिक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम यानि 1989 का SC/ST एक्ट रद्द कर दिया गया।

फैसले में आरोपी को अग्रिम जमानत से इनकार कर दिया गया था। एससी/एसटी एक्ट में एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह भी लाया कि आरोपी लोगों की एफआईआर और संभावित गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई। इसके बाद दलित समुदायों ने देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया। परिणामस्वरूप, संसद को इस फैसले को तत्काल प्रभाव से हटाने के लिए SC/ST एक्ट में एक संशोधन लाना पड़ा। संशोधन की चुनौती वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में लंबित है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच ‘क्रीमी लेयर’

दूसरा फैसला जो 2018 में संविधान पीठ द्वारा दिया गया, जिसमें प्रमोशन में एससी और एसटी के लिए आरक्षण से संबंधित था। न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन की बैंच ने एम. नागराज मामले में पहले के फैसले को एक बड़ी पीठ के हवाले करने से इनकार कर दिया।

क्रीमी लेयर की आवश्यकता नागराज फैसले में मौजूद नहीं थी, जिसे संविधान पीठ ने भी दिया था। न्यायमूर्ति नरीमन के फैसले में तय की गई शर्तों से सामने आया कि किसी भी सरकार के लिए प्रमोशन में आरक्षण लागू करना बहुत मुश्किल हो सकता है।

विभागवार कोटा

तीसरा फैसला पिछले सप्ताह आया जिसमें जस्टिस यू.यू ललित और इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ ने फैसला सुनाया जिसमें 2017 की एक चुनौती याचिका को खारिज किया गया जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालयों में टीचरों के पद विभागवार आरक्षित होने चाहिए ना कि विश्वविद्यालय में उपलब्ध कुल पदों की संख्या के अनुसार।

इस फैसले के बाद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित टीचरों के पदों की संख्या में भारी कटौती होने की संभावना है। हाल ही में आरटीआई के एक खुलासे के अनुसार केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित श्रेणी के पद अभी भी बहुत खाली हैं और ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया गया यह फैसला विश्वविद्यालयों में ऐसे वर्गों से आने वाले लोगों के प्रतिनिधित्व को और कम करता हुआ दिखाई देता है।

सर्वोच्च न्यायालय से हाशिए के समूहों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा यह थी कि यदि सरकारें संविधान में स्थापित सामाजिक न्याय के ढांचे को लागू करने और आगे बढ़ाने में लापरवाही करती हैं, तो शीर्ष अदालतें उनके बचाव में आगे आएंगी और संवैधानिक संस्थानों में दलितों के विश्वास को बनाए रखेंगी।

लेकिन लगातार सरकारों ने सामाजिक न्याय के इस ढ़ांचे को हिलाने की कोशिश की है और ये तीन फैसले इस लापरवाही को साफ तौर पर दर्शाते हैं

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