क्रांतिकारी सूर्य सेन ने अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए की थी आईआरए की स्थापना

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प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता क्रांतिकारी सूर्य सेन की 22 मार्च को 129वीं जयंती है। इन्हें ‘मास्टर दा’ नाम से जाना जाता है। सेन के नेतृत्व में वर्ष 1930 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चटगांव शस्त्रागार का विद्रोह हुआ था। इसने ​अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया था। क्रांतिवीर सेन ने अपने संगठन का नाम ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ रखा। इस ख़ास अवसर पर जानिए भारतीय क्रांतिकारी सूर्य सेन के प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

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क्रांति वीर सूर्य सेन का जीवन परिचय

देश की आज़ादी के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले क्रांतिकारी सूर्य सेन का जन्म 22 मार्च, 1894 को अविभाजित बंगाल प्रांत में चटगांव जिले के राउजान में हुआ था। वह कायस्थ परिवार से थे। उनके पिता रामनिरंजन सेन शिक्षक थे। वर्ष 1916 में जब वह बेरहामपुर कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे तब उन्हें शिक्षक द्वारा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में परिचित करवाया। इसके बाद उन्होंने क्रांतिकारी आदर्शों को अपनाया और क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति से जुड़ गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह वर्ष 1918 में चटगांव लौट आए और राष्ट्रीय विद्यालय, नंदनकानन में गणित पढ़ाने लगे।

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चटगांव शस्त्रागार विद्रोह

सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगांव में अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए इंडियन रिपब्लिकन आर्मी (आईआरए) की स्थापना की गई थी। इस आर्मी में भर्ती होने के लिए युवक और युवतियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। धीरे-धीरे इसमें 500 से अधिक सदस्य बन गए। यह संगठन अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने के लिए शस्त्र जुटाना चाह रहा था। शस्त्रों की जरुरत पूरी करने के लिए सूर्यसेन ने 18 अप्रैल, 1930 की रात अपने साथी गणेश घोष जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर चटगांव के दो शस्त्रागार को लूटने की योजना बनाईं। इसके साथ ही शस्त्र बल से अंग्रेजों की सत्ता समाप्त करके चटगांव में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की तैयारी ने लग गए।

पूरी तैयारी के बाद इन क्रांतिकारियों ने वहां के शस्त्रागार और टेलीफोन, तार आदि को बाधित कर दिया और महत्वपूर्ण स्थानों पर धावा बोल दिया। इनका इरादा शस्त्रागार पर कब्जा करके फिर ब्रिटिश सरकार के सैनिकों का सामना करने का था। इस अचानक आक्रमण से अधिकारी एक बार तो सकते में आ गए। परंतु क्रांतिकारियों को शस्त्रागार से शस्त्र तो मिल गए लेकिन गोला-बारूद नहीं मिला, जिसे अंग्रेजों ने दूसरी जगह छिपाकर रखा था।

इसलिए स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार की घोषणा करने के बाद भी ये उसे कायम नहीं रख सके और इन्हें सूर्य सेन के साथ जलालाबाद की पहाड़ियों में चले जाना पड़ा। यहीं से वह अंग्रेजों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध के लिए तैयार थे।अंतत: 22 अप्रैल, 1930 को अंग्रेज सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया। क्रांतिकारियों से मुठभेड़ में 80 से ज्यादा अंग्रेज सैनिक मारे गए और 12 क्रांतिकारी शहीद हो गए।

सूर्य सेन को जेल में ही दे दी गई फांसी

इसके बाद सूर्य सेन के छुपे होने की सूचना उसी व्यक्ति ने लालच में आकर अंग्रेजों को दी, जिसके घर वह छुपे थे। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर 12 जनवरी 1934 को मेदिनीपुर जेल में फांसी दे दी।

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