भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अहम योगदान देने वालों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का नाम भी शामिल हैं। 10 नवंबर को सुरेंद्रनाथ बनर्जी की 174वीं जयंती है। वह ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध लड़ने वाले शुरुआती भारतीय नेताओं में से थे। उन्होंने ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की, जो भारत के प्रारंभिक राजनीतिक संगठनों में एक थी। बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में शामिल थे। उन्हें ‘राष्ट्रगुरु’ के नाम से भी जाना जाता है। सुरेन्द्रनाथ कांग्रेस के नरम दल के नेताओं में अग्रणी हुआ करते थे। इस खास मौके पर जानिए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
सिविल सेवा परीक्षा पास कर बने थे असिस्टेंट मजिस्ट्रेट
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर, 1848 को बंगाल प्रांत के कलकत्ता में हुआ था। उनके जीवन पर पिता दुर्गा चरण बनर्जी के उदार व प्रगतिशील विचारों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। बनर्जी की प्रारंभिक शिक्षा ‘हिन्दू कॉलेज’ में हुईं। उसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक किया। वर्ष 1868 में सुरेन्द्रनाथ भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए इंग्लैंड गए। वर्ष 1869 में उन्होंने यह परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, लेकिन उम्र को लेकर विवाद होने के कारण उनका चयन रद्द कर दिया गया। परंतु न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद वह एक बार फिर परीक्षा में बैठे और वर्ष 1871 में दोबारा सिविल सेवा में चयनित हुए।
चयनित होने के बाद सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को पहली पोस्टिंग के तौर पर सिलहट में सहायक मजिस्ट्रेट पद पर लगाया गया। पर ब्रिटिश हुकूमत के राज में भारतीयों के लिए उच्च सरकारी नौकरी करना बहुत कठिन काम था, क्योंकि भारतीयों के साथ अंग्रेजों द्वारा रंगभेद और नस्ली भेदभाव किया जाता था। उन पर कई आरोप लगाकर उन्हें नौकरी से हटा दिया गया। ब्रिटिश सरकार के इस रवैये पर वह इंग्लैंड गए, पर वहां उन्हें कोई सहयोग नहीं मिला। इस दौरान बनर्जी ने एडमंड बुर्के और दूसरे उदारवादी दार्शनिकों के बारे में पढ़ा और उनसे प्रेरित होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया।
ऐसा रहा सुरेन्द्रनाथ का राजनीतिक जीवन
जब सुरेंद्रनाथ बनर्जी को इंग्लैंड में न्याय नहीं मिला तो वह वर्ष 1875 में पुन: भारत लौट आए। यहां आकर वह मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूशन, फ्री चर्च इंस्टीट्यूशन और रिपन कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर के पद पर कार्य करने लगे। उन्होंने 26 जुलाई, 1876 को आनंद मोहन बोस के साथ मिलकर ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की, जो भारतीय राजनीति में पहले राजनीतिक संगठनों में से एक था। इस संगठन के माध्यम से वह जनता को न्याय दिलाने वाले मुद्दे उठाते थे। इसके माध्यम से उन्होंने ‘भारतीय सिविल सेवा’ में भारतीय परीक्षार्थियों की आयु सीमा का मुद्दा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उठाया। उन्होंने अपने भाषणों के माध्यम से ब्रिटिश नौकरशाही द्वारा नस्ल-भेद की नीति की कड़ी आलोचना की।
जब ‘द बंगाली’ समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया
बनर्जी ने वर्ष 1879 में ‘द बंगाली’ समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। वर्ष 1883 में इस पत्र में अदालत की अवमानना से संबंधित छपे एक लेख की वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसका विरोध बंगाल सहित देश के अन्य शहरों में भी किया गया। सुरेंद्रनाथ द्वारा स्थापित ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की लोकप्रियता बढ़ी और उसके सदस्यों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई। वर्ष 1885 में उन्होंने इस संगठन का विलय ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ में कर दिया, इन दोनों संगठनों का लक्ष्य एक ही था। बाद में उन्हें दो बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, पहली बार वर्ष 1895 में पुणे और दूसरी बार वर्ष 1902 मेंं अहमदाबाद अधिवेशन में।
बनर्जी ने बंगाल के विभाजन का किया था विरोध
ब्रिटिश सरकार द्वारा वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा की गई तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इसका विरोध करने वालों में अग्रणी नेता थे। इसका पूरे देश में विरोध हुआ। इसके विरोध में उन्होंने स्वदेशी आंदोलन का बड़े स्तर पर प्रचार किया और लोगों से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वेदशी को अपनाने का अनुरोध किया गया। वह कांग्रेस के वरिष्ठ नरमपंथी नेताओं में से एक थे। उनका मत था कि ब्रिटिश हुकूमत के साथ संवैधानिक तरीके से देश को आजाद करवाया जा सकता है, जबकि गरम दल के क्रांतिकारी इसके विपरीत आजादी चाहते थे।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का प्रभाव गरम पंथियों के हावी होने के बाद कम हो गया। उन्होंने वर्ष 1909 में आये ‘मार्ले मिन्टो सुधारों’ को सराहा। वहीं, इसका पूरे देश में विरोध हुआ। वह गांधीजी के ‘सविनय अवज्ञा’ जैसे राजनीतिक हथियारों से सहमत नहीं थे। सुरेन्द्रनाथ को ब्रिटिश सरकार ने ‘नाइट’ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्होंने बंगाल सरकार में मंत्री रहते हुए कलकत्ता नगर निगम को लोकतांत्रिक बनाने में अहम भूमिका निभाईं।
स्वतंत्रता सेनानी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का निधन
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी देश को आजादी दिलाने वाले नरमपंथी नेता थे, जो संवैधानिक तरीके से भारत को आजाद करना चाहते थे। 6 अगस्त, 1925 को उनका बैरकपुर में निधन हो गया।
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