क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा ने विदेशों में रहकर लड़ी थी आजादी की लड़ाई

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भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशों में रहकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा की आज 166वीं जयंती हैं। वर्मा ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आजादी के लिए बलिदान कर दिया था। उन्होंने इंग्लैंड में रहकर आजादी की लड़ाई लड़ीं। वह एक वकील और पत्रकार भी थे, जिन्होंने लंदन में इंडियन होमरूल सोसाइटी, इंडिया हाउस और द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट की स्थापना कीं। ये संस्थाएं, भारत से इंग्लैंड जाकर अध्ययन करने वालों के लिए विचार-विमर्श का प्रमुख केन्द्र थीं। वर्मा लंदन में रह रहे भारतीयों के एक प्रेरणास्रोत ही नहीं, बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में निरंतर प्रयत्नशील व्यक्ति भी थे। इस खास अवसर पर जानिए श्यामजी कृष्ण वर्मा के प्रेरणादायक जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय

भारतीय क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर, 1857 को गुजरात के मांडवी में हुआ था। उनके पिता कृष्णदास भानुशाली कपास प्रेस कंपनी में मजदूर थे और माता गोमतीबाई गृहिणी थी। जब वह 11 साल के थे, तब उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनकी दादी ने ही श्यामजी की परवरिश की थी। श्यामजी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा मांडवी गांव के स्कूल से की और माध्यमिक शिक्षा भुज से प्राप्त की।

इसके बाद वर्मा आगे की पढ़ाई के लिए बंबई चले गए व विल्सन हाई स्कूल में एडमिशन ले लिया। उन्होंने यहां पर संस्कृत का अध्ययन किया। इसके साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी रुचि जाग्रत की। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने वर्ष 1875 में भानुमती भाटिया से शादी कर ली, जो बंबई के एक समृद्ध गुजराती व्यवसायी की बेटी और उनके दोस्त रामदास की बहन थी।

काशी के पंडितों से ‘पंडित’ का खिताब पाने वाले पहले गैर-ब्राह्मण

श्यामजी कृष्ण वर्मा का संपर्क आर्य समाज के संस्थापक और वेदों के ज्ञाता स्वामी दयानंद सरस्वती से हुआ। उनसे वह बहुत प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। उन्होंने वैदिक दर्शन और धर्म पर व्याख्यान देना शुरू कर दिया। श्यामजी ने वर्ष 1877 में पूरे भारत का दौरा किया। वह बंबई आर्य समाज के पहले अध्यक्ष बने। श्यामजी काशी के पंडितों से ‘पंडित’ का खिताब पाने वाले पहले गैर-ब्राह्मण थे। संस्कृत के विद्वान होने के कारण ही उन्हें ऑक्सफोर्ड प्रोफेसर मोनियर विलियम्स ने अपना सहायक बनने की पेशकश की।

ऑक्सफोर्ड कॉलेज में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर नियुक्त

25 अप्रैल, 1879 को श्यामजी कृष्ण वर्मा इंग्लैंड गए और प्रोफेसर विलियम्स की सिफारिश पर संस्कृत विभाग के एक सहायक प्रोफेसर के रूप में ऑक्सफोर्ड के बैलिओल कॉलेज में नियुक्त हो गए। वर्ष 1883 में उन्होंने स्नातक उत्तीर्ण कीं। श्यामजी ने वर्ष 1885 में बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण की और वह इसी वर्ष भारत लौट आए। श्यामजी बंबई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे। उन्हें रतलाम राज्य के राजा द्वारा दीवान के रूप में नियुक्त किया गया था। वर्मा वहां ज्यादा समय नहीं टिक सके व स्वास्थ्य कारण से सेवानिवृत्त हो गए। बाद में वह अपने गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती के मुख्यालय अजमेर में आकर बस गए। यहीं पर ब्रिटिश कोर्ट में वकालत जारी रखीं।

उन्होंने अपनी आय को तीन कपास प्रेस में निवेश किया और अपने जीवन के बाकी हिस्सों के लिए स्वतंत्र होने के लिए पर्याप्त स्थायी आय प्राप्त कीं। श्यामजी ने वर्ष 1893 से 1895 तक उदयपुर के महाराजा के लिए परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया। उसके बाद जूनागढ़ राज्य के दीवान के पद पर रहे। वर्मा ने वर्ष 1897 में एक ब्रिटिश एजेंट के साथ कड़वे अनुभव के बाद इस्तीफा दे दिया। इसने ब्रिटिश शासन के प्रति उनमें अविश्वास पैदा किया।

इंडिया हाउस बना था क्रांतिकारियों की शरणस्थली

स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों और दर्शन से प्रेरित होकर श्यामजी कृष्ण वर्मा में राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत हुईं। उन्होंने 18 फरवरी, 1905 को लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त करवाना और भारत के लोगों में स्वतंत्रता व राष्ट्रीय एकता की भावना जाग्रत करना था। वर्मा ने अंग्रेजी में एक मासिक पत्र ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ निकाला। देश की आजादी के लिए इंडिया हाउस की स्थापना की, जो इंग्लैंड में भारतीय राजनीतिक गतिविधियों तथा कार्यकलापों का सबसे बड़ा केंद्र बना। यहीं से आजादी के लिए कई क्रांतिकारियों को तैयार किया, जिनमें मैडम कामा, वीर सावरकर, लाला हरदयाल और मदन लाल ढींगरा प्रमुख थे।

लंदन में उनकी संस्था द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न होने पर वहां का मीडिया उनके विरुद्ध हो गया और उनके अखबार के खिलाफ अपमानजनक आरोप लगाए गए। वर्मा को वर्ष 1907 में अपना मुख्यालय पेरिस में स्थानान्तरित करना पड़ा। यहां पर उन्होंने यूरोपीय देशों से भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन जुटाना शुरू किया। बाद में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने यहां से भी अपना कार्यालय जिनेवा में स्थानांतरित कर दिया था।

क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन

विदेशों में रहकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले महान क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा का देहांत 79 वर्ष की उम्र में 30 मार्च, 1930 को जिनेवा के एक अस्पताल में हो गया। उनकी स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 4 अक्टूबर, 1989 को एक डाक टिकट जारी किया।

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