आख़िरकार तीन तलाक बिल संसद के उच्च सदन यानि राज्यसभा में भी मंगलवार को पास हो गया। अब केवल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हस्ताक्षर करना ही बाकी रह गया है, इसके बाद यह कानून का रूप ले लेगा। राज्यसभा में तीन तलाक बिल के पक्ष में 99 और विरोध में 84 वोट पड़े। इससे पहले लोकसभा में तीन बार पास होने के बाद भी यह बिल राज्यसभा में पास नहीं हो सका था। अब यह मुस्लिम महिला (शादी पर अधिकारों की सुरक्षा) विधेयक, 2019 कानून का रूप लेगा। बिल पर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब मौखिक, लिखित या किसी भी अन्य माध्यम से तीन तलाक देना कानूनन अपराध होगा। यह मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष और सरकार की जीत है। लेकिन क्या आपको पता है सबसे पहले तीन तलाक पर आवाज उठाने वाली पहली महिला शाहबानो कौन थीं। आइए हम बताते हैं पूरी कहानी..
तीन तलाक कानून शाहबानो के संघर्ष की जीत
तीन तलाक के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने वाली पहली मुस्लिम महिला शाहबानो मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली थीं। आज शाहबानो इस दुनिया में नहीं है लेकिन तीन तलाक बिल पास होना सच्चे मायनों में शाहबानो जैसी हजारों महिलाओं की जीत है। नि:संदेह, शाहबानो आज जीवित होती तो वह बहुत खुश होती कि उनके लंबे संघर्ष और उनकी लड़ाई आख़िरकार मुकाम जीत के मुकाम पर पहुंच गई। तीन तलाक बिल पास हुआ तो हर कोई उस मुस्लिम महिला शाहबानो के बारे में जानने को उत्सुक है जिसने इसके ख़िलाफ़ सबसे पहले आवाज़ उठाईं।
ऐसे शुरू हुआ था शाहबानो के संघर्ष का सफ़र
दरअसल, एमपी के इंदौर में रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानो को उनके पति मोहम्मद अहमद ने 62 वर्ष की उम्र में तलाक दे दिया था। उनके शौहर अहमद ने वर्ष 1978 में तीन तलाक कहते हुए उन्हें घर से निकाल दिया था।तलाक-ए-बिद्दत कानून के अनुसार शौहर अपनी बीवी की मर्जी के ख़िलाफ़ ऐसा करने को स्वतंत्र था। उस वक़्त शाहबानो पांच बच्चों की मां थीं। बच्चों और अपनी जीविका का कोई साधन नहीं होने के कारण वह पति से गुजारा भत्ता लेने के लिए कोर्ट पहुंचीं। उनके लिए यहां तक पहुंचने की राह आसान नहीं थी, शाह बानो को सुप्रीम कोर्ट पहुंचने में सात साल लग गए थे।
1986 में पास हो गया था कानून लेकिन दवाब में बदलना पड़ा
शाहबानो केस की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैसला दिया। यह वही फैसला था जो हर किसी पर लागू होता है, फिर चाहे वह व्यक्ति किसी भी मज़हब से संबंध रखता हो। कोर्ट ने निर्देश दिया कि शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान गुजारा भत्ता दिया जाए। उस समय रूढ़िवादी लोगों को कोर्ट का फैसला मज़हब के ख़िलाफ़ लगा। कांग्रेस ने कोर्ट के फैसले के बाद इस कदम को धर्मनिरपेक्षता की मिसाल के रूप में पेश किया। इस समय कांग्रेस के पास लोकसभा और राज्यसभा में अच्छा बहुमत था, लिहाजा मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार सरंक्षण) कानून वर्ष 1986 में आसानी से पास हो गया था।
कांग्रेस की ही राजीव गांधी सरकार ने पलटा फैसला
उस समय जब देश की सर्वोच्च अदालत ने तलाकशुदा शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया था, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उनके पक्ष में आए न्यायालय इस फैसले के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन शुरु कर दिया। तब देश के तमाम मुस्लिम संगठनों का एक ही कहना था कि कोर्ट ने उनके पारिवारिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करके उनके अधिकारों का हनन किया है।
मुस्लिम वोट बैंक खिसकने के डर से कांग्रेस पार्टी और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी बुरी तरह डर गए थे। सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो मामले में फैसले को इस्लाम में दख़ल मानकर केन्द्र सरकार ने नया कानून बनाया डाला।
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इस तरह राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू होने से ही रोक दिया गया था। इस का नतीजा यह हुआ कि शाहबानो इंसाफ से वंचित रह गई। तब से तीन तलाक पीड़ित मुस्लिम महिलाएं न्याय के लिए संघर्ष कर रही थीं।