शहादत दिवस: वो वीर जिनकी जांबाजी के किस्से आज भी दिलों में भर देते हैं जोश

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Shahadat-Diwas-19-December

भारत को आजादी दिलाने के लिए हंसते हंसते अपनी जान देने वाले आजादी के सिपाही राम प्रसाद बिस्‍मिल, अशफाक उल्‍ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसंबर, 1927  के दिन फांसी दी गई थी। तीनों क्रांतिकारियों को अलग-अलग जेल में फांसी पर लटकाया गया था। इस दिन को शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है। आजादी के इन मतवालों को काकोरी कांड को अंजाम देने के लिए फांसी पर चढ़ाया गया था। आजादी की जंग के इतिहास में काकोरी कांड को हमेशा याद रखा जाएगा।

आइए आपको इन ​तीनों के शहादत की कहानी बताते हैं लेकिन उससे पहले पढ़िए फांसी से कुछ समय पहले अशफाकउल्ला की लिखी रचना… इससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि वतन के लिए जान देने वाले ये क्रांतिकारी कितने साहसी थे…।

बुजदिलों ही को सदा मौत से डरते देखा,

गो कि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।

मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।

मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,

हम सदा खेल ही समझा किए, मरना क्या है।

वतन हमेशा रहे, शादकाम और आजाद,

हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे।

साल 1922 के दौर में जब आजादी की लड़ाई चरम पर थी तब बंगाल में शचीन्द्रनाथ सान्याल व योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे दो प्रमुख व्यक्तियों के गिरफ्तार हो जाने पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का पूरा दारोमदार रामप्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर आ गया। इसमें शाहजहाँपुर से प्रेम कृष्ण खन्ना, ठाकुर रोशन सिंह के अतिरिक्त अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का योगदान सराहनीय रहा। जब आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों की तर्ज पर जबरन धन छीनने की योजना बनायी गयी तो अशफ़ाक़ ने अपने बड़े भाई रियासत उल्ला ख़ाँ की लाइसेंसी बन्दूक और दो पेटी कारतूस बिस्मिल को उपलब्ध कराए ताकि धनाढ्य लोगों के घरों में डकैतियां डालकर पार्टी के लिए पैसा इकट्ठा किया जा सके।

लेकिन जब बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी तो अशफ़ाक़ ने अकेले ही कार्यकारिणी मीटिंग में इसका खुलकर विरोध किया। उनका तर्क था कि अभी यह कदम उठाना खतरे से खाली न होगा, सरकार हमें नेस्तनाबूद कर देगी।

इस पर जब सब लोगों ने अशफ़ाक़ के बजाय बिस्मिल पर खुल्लमखुल्ला यह फब्ती कसी कि पण्डित जी! देख ली इस मियाँ की करतूत। हमारी पार्टी में एक मुस्लिम को शामिल करने की जिद का असर अब आप ही भुगतिये, हम लोग तो चले। इस पर अशफ़ाक़ ने कहा कि पण्डित जी हमारे लीडर हैं हम उनके हम उनके बराबर नहीं हो सकते। उनका फैसला हमें मंजूर है। हम आज कुछ नहीं कहेंगे लेकिन कल सारी दुनिया देखेगी कि एक पठान ने इस एक्शन को किस तरह अन्जाम दिया? और वही हुआ।

अगले दिन 9 अगस्त 1925 की शाम काकोरी स्टेशन से जैसे ही ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफ़ाक़ ने ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को जमीन पर औंधे मुँह लिटाते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। लोहे की मजबूत तिजोरी जब किसी से न टूटी तो अशफ़ाक़ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ाया और पूरी ताकत से तिजोरी पर टूट पडे। अशफ़ाक़ के तिजोरी तोड़ते ही सभी ने उनकी फौलादी ताकत का नजारा देखा। वरना यदि तिजोरी कुछ देर और न टूटती और लखनऊ से पुलिस या आर्मी आ जाती तो मुकाबले में कई जाने जा सकती थीं। फिर उस काकोरी काण्ड को इतिहास में कोई दूसरा ही नाम दिया जाता.

इस मामले की सुनवाई के दौरान जज के सामने तमाम अपीलों व दलीलों का इतना असर हुआ कि फांसी की तारीख दो बार आगे बढा दी गयी। पहली तारीख 16 सितम्बर 1927 थी, बाद में 11 अक्टूबर 1927 हुई। चूंकि लन्दन की प्रिवी-कौंसिल में मर्सी-अपील जा चुकी थी अत: फांसी की तारीख फिर से आगे के लिए टाल दी गयी। आखिरकार 19 दिसम्बर 1927 की तारीख मुकर्रर हुई और इसकी सूचना चारो जेलों को भेज दी गयी। फैजाबाद जेल में यह सूचना पहुँचते ही अशफ़ाक़ ने 29 नवम्बर 1927 को अपने भाई रियासत उल्ला ख़ाँ, 15 दिसम्बर 1927 को अपनी वालिदा मोहतरमा मजहूरुन्निशाँ बेगम तथा 16 दिसम्बर 1927 को अपनी मुँह बोली बहन नलिनी दीदी को खत लिखा और खुदा की इबादत में जुट गये।

रामप्रसाद बिस्मिल को जब फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो खुशी-खुशी फांसी के फंदे की तरफ जाते हुए उन्होंने कहा –

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,

बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।

जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,

तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे।।

अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़!

एक मिट जाने की हसरत, अब दिले बिस्मिल में है!

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