Birthday Special : आज के दौर में भी है सफ़दर हाशमी जैसे युवाओं की जरूरत

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आपने ये तो सुना ही होगा कि युवा ही हमारे देश का भविष्य हैं और देश में चल रही समस्याओं से निपटने में युवा अपना बेहतर योगदान दे सकते हैं। मगर आज के दौर की अगर बात करें तो कितने ऐसे युवा हैं, जो किसी तरह के बदलाव की या गलत के खिलाफ आवाज़ उठाने की सोच रखते हैं और जो चंद लोग इस गिनती में आते हैं उनकी आवाज़ को भी इस रॉबिनहुड सिस्टम के तले दबा दिया जाता है।

वैसे सरकारों का ये दबदबा आज की कहानी नहीं है। कई सालों पहले भी ऐसा ही एक किस्सा देखने को मिला था, जहां लाखों लोग इस बात के गवाह बने थे कि आम आदमी के हक की बात करने वाले इंसान पर किस तरह अपना फैसला थोपा जाता है और फिर किस तरह उसका मुंह बंद कराया जाता है। बात है 1 जनवरी 1989 की, जब दिनदहाड़े एक निहत्थे युवा पर जानलेवा हमला हुआ था।

नुक्कड़ नाटकों को दी थी नई पहचान :

सफ़दर हाशमी, एक प्रतिभावान नाटककार, निर्देशक, गीतकार और कलाविद, जिन्होंने भारत में नुक्कड़ नाटक को आगे बढ़ाने में अपना खास योगदान दिया। दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य से एमए करने वाले संपन्न परिवार के युवा सफ़दर ने सूचना अधिकारी की नौकरी से इस्तीफ़ा देकर आम लोगों की आवाज़ बुलंद करने के लिए नुक्कड़ नाटकों को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया।

safdar hashmi

सम्पन्न परिवार के इस लड़के ने समझा था शोषित लोगों का दर्द :

1975 में आपातकाल लागू होने के बाद सफदर लगातार नुक्कड़ नाटक करते रहे। सम्पन्न परिवार से होने के बावजूद भी उन्होंने हमेशा अपने नाटकों के माध्यम से शोषित और वंचित लोगों की आवाज को बुलंद किया। जन नाट्य मंच ने छात्रों, महिलाओं और किसानों के आंदोलनो में सक्रिय भूमिका निभाई। उनके कुछ मशहूर नाटकों में ‘गांव से शहर तक’, ‘हत्यारे और अपहरण भाईचारे का’, ‘औरत’ और ‘डीटीसी की धांधली’ आदि शामिल हैं।

सत्ता खोने का डर बना सफदर की जान का दुश्मन :

1978 में उन्होंने जननाट्य मंच की स्थापना की। आम मजदूरों की आवाज़ को सिस्टम चलाने वालों तक पहुंचाने की उनकी मुहिम कितनी प्रभावी हुआ करती थी, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक जनवरी, 1989 को दिल्ली से सटे साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ के दौरान तब के स्थानीय कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा ने अपने गुंडे भिजवाकर दिन दहाड़े उनके दल पर जानलेवा हमला करवाया था।

safdar death

15 हज़ार लोगों की भीड़ उमड़ी थी अंतिम दर्शन के लिए :

हमले में सफ़दर बुरी तरह घायल हो गए थे और दो जनवरी को राम मनोहर लोहिया अस्पताल में वो जिंदगी की जंग हार गए। सफदर की अम्मी की लीखी किताब ‘पांचवां चिराग’ में अस्पताल के डॉक्टर ने बताया कि उनके सिर में तीन तरफ फ्रैक्चर हुआ था और बचने की उम्मीद ना के बराबर थी। उस जमाने में जब मोबाइल और इंटरनेट नहीं थे, तब सफदर के अंतिम संस्कार में 15 हज़ार से ज्यादा लोग उमड़े थे।

मौत के दो दिन बाद उसी जगह हुआ ‘हल्ला बोल’ का मंचन :

सिस्टम ने अपनी ताकत का घमंड जरूर दिखाया था, मगर सच बोलने वालों को किस का डर था। सफ़दर की मौत के 48 घंटों के भीतर उनके साथियों और उनकी पत्नी मौलीश्री ने ठीक उसी जगह जाकर ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन किया। मगर उनकी राहें इतनी आसान नहीं थी। सफ़दर के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए उनके परिवार वालों और दोस्तों को 14 साल तक संघर्ष करना पड़ा।

halla bol

आज के दौर में भी है सफदर जैसे युवाओं की जरूरत :

आखिरकार सच की जीत हुई और कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा और उसके नौ साथियों को आजीवन कारावास और 25—25 हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई। सफदर के भाई सुहेल का कहना है कि मौजूदा समाज में जिस तरह से अल्पसंख्यकों को हाशिए पर रखने की कोशिश की जा रही है, उसे मिटाने का काम सफ़दर जैसे युवा ही करेंगे। मुझे लगता है कि उनकी प्रासंगिकता इस दौर में बढ़ गई है।”

वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल का कहना है कि, मौजूदा दौर में सफ़दर हाशमी जैसे युवाओं की ज़रूरत कहीं ज़्यादा है। वे कहते हैं, “आम आदमी के हितों की बात को उठाने के लिए सफ़दर ने नुक्कड़ नाटक को हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने जिस तरह के नाटक किए, उसके चलते उनकी हत्या तक हो गई, उस तरह के नाटकों की कल्पना आज के दौर में में भी नहीं की जा सकती।”

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