मातंगिनी हाजरा स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए पहनती थी खादी के कपड़े

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Matangini-Hazra-Biography

अंग्रेजी शासन से देश को मुक्त कराने के लिए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर कई भारतीय महिलाओं ने भी अपने जीवन का बलिदान किया था। ऐसी ही बहादुर महिलाओं में से एक थी मातंगिनी हाजरा। मातंगिनी को सम्मान से ‘गांधी बूढ़ी’ और बंगाल की ‘ओल्ड लेडी गांधी’ नाम से भी पुकारा जाता है। महान भारतीय क्रांतिकारी वीरांगना मातंगिनी हाजरा की 19 अक्टूबर को 153वीं जयंती है। इस खास अवसर पर जानिए उनके प्रेरणादायक जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

मातंगिनी हाजरा का जीवन परिचय

क्रांतिकारी महिला मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर, 1870 को पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के मिदनापुर जिले के होगला गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस कारण उनको स्कूल में पढ़ने भी नहीं भेजा गया। मातंगिनी का विवाह महज 12 की उम्र में 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया था। वह शादी के छह साल बाद विधवा हो गई और उनके कोई संतान भी नहीं थी। इसके बाद वह अपने मायके लौट आईं। शिक्षा के अभाव के बावजूद वह देश को आजाद करने के प्रति जागरूक थी। उसने बंग-भंग विभाजन के विरोध में भाग लिया। मातंगिनी बाद में महात्मा गांधी के आंदोलनों में भी भाग लेने लगीं।

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स्वयं सूत कातती और खादी पहनती थी हाजरा

वर्ष 1932 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन में मातंगिनी हाजरा ने भाग लिया था। उन्हें नमक कानून तोड़ने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। हाजरा को थोड़े दिनों बाद रिहा कर दिया गया, लेकिन उन्होंने करों को समाप्त करने के लिए विरोध किया। इस पर उन्हें फिर से गिरफ्तार कर बहरामपुर में 6 महीने तक कैद रखा गया।

जब वो रिहा हुई तो उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और सक्रिय कार्यकर्ता बन गईं। मातंगिनी ने महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यों को अपने जीवन में उतारा। हाजरा स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए स्वयं सूत कातती और खादी के कपड़े पहनती थीं। उन्होंने जनसेवा और देश की आज़ादी को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था।

जब तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 26 जनवरी, 1932 को एक जुलूस मातंगिनी हाजरा के घर पास से निकला तो वह भी उस जुलूस में सम्मिलित हो गईं। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुंचकर एक जन सभा हुई। इस जन सभा में उसने सबके साथ स्वतंत्रता आंदोलन में तन, मन, धन से संघर्ष करने की शपथ ली। वर्ष 1933 में उन्होंने सेरामपुर में कांग्रेस के उपसंभागीय सम्मेलन में भाग लिया और पुलिस द्वारा किए गए लाठी चार्ज में वह घायल हो गई थी।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में निभाई अहम भूमिका

वर्ष 1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण हैजा और चेचक फैल गया। इससे निपटने के लिए मातंगिनी हाजरा अपनी जान की परवाह किए बैगर राहत कार्य में जुट गईं। उन्होंने वर्ष 1942 में गांधीजी द्वारा चलाए गए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी भाग लिया। इस आंदोलन के समय हाजरा की उम्र 71 वर्ष थी। 8 सितंबर को तामलुक में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चला दी, जिसमें तीन स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए। लोगों ने इसके विरोध में 29 सितंबर को ओर भी बड़ी रैली निकालने का निश्चय किया। उन्होंने 6 हजार समर्थकों के साथ जिनमें ज्यादातर महिला स्वयंसेवक थी, के जुलूस का नेतृत्व किया।

जुलूस का नेतृत्व करते हुए हुई शहीद

जब जुलूस सरकारी बंगले पर पहुंचा तो पुलिस की बंदूकें गरज उठीं। इस जुलूस में मातंगिनी हाजरा ने तिरंगे झण्डे को अपने हाथों में ले रखा था और वह ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगा रही थीं। तभी पुलिस की गोली उनके बाएं हाथ में लगी। इस पर उन्होंने झण्डे को दूसरे हाथ में थाम लिया तभी दूसरी गोली उनके दाएं हाथ में लगी और तीसरी गोली उनके सिर को भेद गई। इसके साथ ही हाजरा वहीं 29 सितंबर, 1942 को शहीद हो गईं। इसके बाद आंदोलन आग की तरह फैल गया। दस दिन में यहां से आंदोलनकारियों ने अंग्रेजों को खदेड़कर स्वाधीन सरकार स्थापित की, जो 21 महीने तक चलीं।

डाक विभाग ने हाजरा पर जारी किया 5 रुपए का टिकट

आजादी के बाद मातंगिनी हाजरा के नाम पर कई स्कूलों, सड़कों का नाम रखा गया। वर्ष 1977 में कोलकाता में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई, जो उनकी पहली प्रतिमा है। दिसम्बर, 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया। वर्ष 2002 में भारत छोड़ो आंदोलन और तामलुक राष्ट्रीय सरकार के गठन की स्मृति की एक श्रृंखला के रूप में भारतीय डाक विभाग ने मातंगिनी हाजरा पर पांच रुपए का डाक टिकट जारी किया।

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