अब बस कुछ ही दिनों की बात है। मतदान का अंतिम चरण रविवार 19 मई को होने जा रहा है। उस शाम एक बार मतदान हो जाने के बाद हमें आधिकारिक एग्जिट पोलिंग डेटा मिलेगा। 23 मई गुरुवार को वोटों की असल गिनती भी शुरू हो जाएगी। अब नजर डालते हैं राज्य और उनमें किस पार्टी बोल बाला है।
पश्चिम बंगाल: 42 सीटें (तृणमूल कांग्रेस का बोल बाला)
आंध्र प्रदेश: 25 सीटें (तेलुगु देशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस)
ओडिशा: 21 सीटें (बीजू जनता दल)
तेलंगाना: 17 सीटें (तेलंगाना राष्ट्र समिति)
कुल मिलाकर ये ऐसी 105 सीटें हैं जिनमें से अधिकतर सीट ना तो कांग्रेस की तरफ जाएंगी और ना ही भाजपा की तरफ। यदि आप उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को इसमें शामिल करते हैं साथ ही वामपंथी (मुख्य रूप से केरल में सीटें लेने की उम्मीद करते हैं) को मिला लें तो खुद को भाजपा और कांग्रेस से अलग रखकर ये 130 से 140 सीटों तक सिमट सकते हैं।
ऐसी परिस्थितियां जहां भाजपा और उसके सहयोगी बहुमत (272 सीटें) नहीं जीत पाते और कांग्रेस अन्य क्षेत्रीय दलों (यानी 120 से कम सीटों) को अपनी ओर नहीं झुका पाता तो इस स्थिति में कोई क्षेत्रीय पार्टी किसी भी तरह की मांग रख सकती है।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का रोल यहां अहम हो सकता है। केसीआर के नाम से उन्हें जाना जाता है पिछले साल उन्होंने समय से पहले अपने राज्य में चुनाव बुलाने का स्मार्ट फैसला किया जिससे उन्हें एक शानदार जीत मिली और लोकसभा चुनावों की संभावना भी प्रबल हो गई।
चंद्रशेखर राव फिलहाल राज्य से परे केंद्र के लिए तैयारियां भी कर रहे हैं। पिछले हफ्ते से अधिक से अधिक मीटिंगे करना या पार्टियों के कई प्रमुखों के साथ बैठक करना ताकि कोई समीकरण बिठाया जा सके।
कयास लगाए जा रहे हैं कि जरूरत पड़ने पर चंद्रशेखर राव केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन कर सकते हैं। लेकिन वे कई और दलों से भी बातचीत में लगे हुए हैं। उन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस के सहयोगी दल जनता दल (सेक्युलर) और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के साथ मुलाकात करने का फैसला लिया है।
अगर दोनों ने अलग होना चुना तो वे अंतिम रैली में शामिल हो सकते हैं। केसीआर का सपना 1996-1998 की संयुक्त मोर्चा सरकार जैसा कुछ बनाने का हो सकता है जब जनता दल (सेकुलर) के एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाले गठबंधन को कांग्रेस ने समर्थन दिया था। वो अलग बात है कि ये सिर्फ दो साल तक चल पाया।
बेशक, गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मोर्चों के सपने हमेशा क्षेत्रीय दलों और वाम दलों ने देखे हैं लेकिन वे आमतौर पर आंतरिक विवादों के कारण अलग हो जाते हैं।
तृणमूल कांग्रेस बंगाल के प्रतिद्वंदी वाम दलों के साथ काम नहीं करना चाहेगी
तेलुगु देशम आंध्र प्रतिद्वंदी वाईएसआर कांग्रेस के साथ काम नहीं करना चाहेगा
केसीआर तेलुगु देशम के साथ काम नहीं करना चाह सकते हैं जिसके नेता चंद्रबाबू नायडू ने अपने स्वयं के गठबंधन की कोशिश की।
कुछ मायनों में, बीजेपी का उदय इन आंतरिक चुनौतियों में से कुछ को हल कर सकता है। जैसे कि वामपंथी अब बंगाल में तृणमूल के लिए खतरा नहीं हैं उदाहरण के लिए, और भाजपा के खतरे ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज को पहले ही साथ लाकर खड़ा किया है।
हो सकता है कि इस चीज का आधार कमजोर हो लेकिन चुनावी समीकरणों को इस नजर से भी देखा ही जा सकता है। इनमें से सभी दल ड्राइवर सीट पर ही बैठने की उम्मीद कर रहे हैं। जहां भी कांग्रेस और भाजपा में से किसी को भी समर्थन की जरूरत पड़ी तब कई पार्टियां अपने हित को सामने रख सकती है।
ऐसी स्थिति में चन्द्रशेखर राव कहीं ना कहीं थोड़ा समर्थन जुटा सकते हैं ताकि किसी भी गठबंधन में जाने पर उनका प्रभाव ज्यादा रहे।