क्या वाकई देश की आजाद में योगदान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों को लेकर आज प्रश्न उठाना तर्क संगत है। आपसी मतभेद किस में नहीं हो सकते? दो धर्मों, जातियों, विचारधाराओं के लोगों के मध्य हो सकता है। परंतु भारत की आजादी में सबका योगदान था, फिर चाहे वो क्रांतिकारी हो या किसी प्रमुख दल का व्यक्ति, क्योंकि सबका उद्देश्य एक ही था भारत को आजाद करना।
क्या वजह है इतिहास को लेकर विवादों की
आज एक पक्ष यह मानता है कि आजादी के बाद देश के क्रांतिकारियों को सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। यह सही भी है आजादी के दौर के हर स्वतंत्रता सेनानी को सम्मान मिलना चाहिए, फिर चाहे उनका कितना ही योगदान क्यों न हो। सबने आजादी के दौरान अपना बहुत कुछ गवाया हैं।
इन आजादी के दीवानों को लेकर देश में बहुत कुछ गलत दिशा में जा रहा है। आज भारत दुनिया के प्रमुख देशों में अपनी पैठ बना चुका है। भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छी छवि है। ऐसे में हमें अपने आपको देश के अंदर मजबूत बनाने की जरूरत है न कि स्वतंत्रता सेनानियों को लेकर लड़ने की।
आज के राजनीतिक दल लोगों को धर्म, जाति, आरक्षण और स्वतंत्रता सेनानियों को लेकर आए दिन कुछ न कुछ नया मुद्दा छेड़ देते हैं, जिसमें देश का बौद्धिक वर्ग और जनता भी बंटते नजर आते हैं। क्या यह सही है? क्या वर्तमान ज्वलंत मुद्दों से देश की जनता को भटकाना है?
देश की जनता को समझ लेना चाहिए ये चंद नकारात्मक महत्त्वाकांक्षी लोगों की छोटी सोच है। इस प्रकार के सवालों से वह अपने पद और प्रतिष्ठा को आज की जनता में कम नहीं होने देना चाहते हैं।
कौन किसी को खाने को देता है, सबको अपनी रोजी—रोटी की व्यवस्था खुद करनी होती है। जिसके लिए एक मजबूत देश और निष्पक्ष सरकार की जरूरत होती है।
अगर कोई राजनीतिक दल अतीत की लकीरों को पीटता है, तो निश्चित है भटक रहे हैं। ये दल अपना स्वार्थ साध रहे हैं और इसमें कई लोगों को बहुत फायदा हो रहा है। जिसे जनता समझ नहीं पाती है।
वह करो जिससे देश में शांति बनी रहे
अतीत को बार—बार जनता के सामने लाना अच्छा नहीं है। सबने इतिहास पढ़ा है, पर हमने क्या सीखा। सिर्फ तर्क—कुतर्क करना क्यों? हमने इतिहास से यह नहीं सीखा की कोई शासन व्यवस्था किसी अन्य के गुलाम क्यों बनी? हमने यह नहीं सीखा की युद्धों से जन—धन की कितनी हानि होती है? हमने केवल प्रतिशोध सीखा है इतिहास से, जो हमारे किसी काम का नहीं है।
देश में आरक्षण को लेकर तकरार होती रहती है, क्यों? शायद प्रतिशोध के कारण? कोई इस पर मंथन की कहे तो सब के सब टूट पड़ते हैं भूखे भेड़ियों की तरह। यह सीखा है कि कैसे लोगों ने निम्न जातियों का शोषण किया था तो अब हम भी वैसा ही करेंगे?
प्रधानमंत्री नेहरू और सरदार पटेल पर विवाद
यह केवल उन लोगों के लिए सही हो सकता है जो केवल अपने राजनीतिक हित साधना चाहते हैं। लेकिन वर्तमान संदर्भ में एक मजबूत देश की मानसिकता के लिए बहुत ही घातक है, क्योंकि हम दुनिया के उस स्तर पर हैं जहां पहुंचने के लिए अथक प्रयासों के बाद भी नहीं पहुंचा जा सकता है।
Released an absorbing biography of VP Menon by @narayani_basu. Sharp contrast between Patel's Menon and Nehru's Menon. Much awaited justice done to a truly historical figure. pic.twitter.com/SrCBMtuEMx
— Dr. S. Jaishankar (Modi Ka Parivar) (@DrSJaishankar) February 12, 2020
ऐसे समय में हम खुद ही लड़कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? हम अतीत में जाकर उसे बदल तो नहीं सकते, तो फिर अतीत का प्रश्न आज कुतर्क बनाकर पेश करना बिल्कुल तर्क संगत नहीं है। आप देश की 1 अरब 35 करोड़ आबादी का प्रतिनिधित्व करते हो, तब जब देश की जनता ने आपको चुना है। आप चंद उकसाने वाले लोगों के बहकावे में नहीं आज सकते। आप पर देश की जनता को विश्वास है, इसलिए आप अतीत पर प्रश्न नहीं उठा सकते हैं। अगर विवाद है तो उसे आपसी समझ से सुलझाया जा सकता है। इस तरह से नहीं कि देश की जनता बंटने लगे।
बौद्धिक वर्ग की लड़ाई में जनता न फंसे
देश की राजनीति में बहुत कुछ गलत हो रहा है। ऐसा नहीं इसके लिए सत्ता पक्ष जिम्मेदार है, साथ ही विपक्ष भी उतना ही जिम्मेदार है। विवादों को शांत करने के बजाय उन्हें कुरेदा जाता है। अब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के बीच के रिश्ते को लेकर विवाद शुरू हुआ है। विदेशमंत्री एस जयशंकर ने बुधवार को नारायणी बसु द्वारा लिखी गई वीपी मेनन की जीवनी के विमोचन के बाद उसके कुछ तथ्यों को लेकर कई ट्वीट किए। जयशंकर ने इन ट्वीट में लिखा कि वीपी मेनन की जीवनी से उन्होंने जाना कि वर्ष 1947 में जवाहरलाल नेहरु सरदार पटेल को अपने कैबिनेट में जगह नहीं देना चाहते थे।
इस प्रकार इस देश में आजादी के दीवानों के लेकर कोई न कोई विवाद सामने आता रहा है। कभी सावरकर को लेकर तो कभी गांधीजी को लेकर बौद्धिक वर्ग बंटता नजर आता है।
अब वक्त नहीं है कि हमें किसी की कमियों को जनता को बताने का बल्कि हमें देश को आगे ले जाने का जिम्मा मिला है। इस देश के बौद्धिक वर्ग को भी चाहिए कि आपसी ईर्ष्या—द्वेष त्यागकर हमें उन्नति की राह पर बढ़ना है। बाकी तो राजतंत्र और लोकतंत्र में क्या फर्क रह जाएगा। साथ देश की जनता को चाहिए कि वे इन स्वार्थी लोगों की बातों में आने से बचे। इस प्रकार जब कोई देश के सेनानियों को लेकर सवाल दागते हैं तो जनता में भी इन बातों का असर साफ नजर आता है। वे बंटने लगते हैं, जोकि देश के हित में नहीं है।