पिछले कुछ समय से बंगाल और ओडिशा के रसगुल्ले के बीच पहचान की एक लड़ाई चल रही थी और इस लड़ाई में ओडिशा के रसगुल्ले ने बाजी मार ली है। आप सोच रहे होंगे कि हम रसगुल्लों की कौनसी लड़ाई बात कर रहे हैं, तो आइए आपको विस्तार से बताते हैं। दरअसल हाल ही ओडिशा रसगुल्ले को जीआई (जियोग्राफिकल इंडीकेशन अर्थात भौगोलिक सांकेतिक) टैग मिला है।भारत सरकार के जीआई रेजिस्ट्रेशन की तरफ से यह मान्यता दी गई है।
इस मान्यता के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि ओडिशा का रसगुल्ला यहां के भौगोलिक एवं सांकेतिक स्थिति के साथ जुड़ा हुआ है। ओडिशा की जगन्नाथ संस्कृति के साथ रसगुल्ले का प्राचीन संपर्क है और इससे यह स्पष्ट होता है कि ओडिशा की परंपरा भी रसगुल्ले से जुड़ी है। आपको बता दें कि अमूमन रसगुल्ले का नाम आते ही बंगाल का नाम आ जाता है। बंगाल में भी इसका पुराना इतिहास है। यही कारण है कि बंगाल की ओर से जीआई टैग के लिए मांग की गई थी।
दरअसल रसगुल्ले को लेकर ओडिशा एवं पश्चिम बंगाल के बीच विवाद चल रहा था। 2017 में बंगाल के रसगुल्ले को जीआई टैग मिल भी गया था। इसके बाद 2018 फरवरी महीने में ओडि़शा सूक्ष्म उद्योग निगम की तरफ से चेन्नई में मौजूद जीआई कार्यालय में विभिन्न प्रमाण के साथ नथीपत्र दाखिल किया गया था।
1845 में बंगाल में हुआ था अविष्कार
रसगुल्ले को लेकर बंगाल के लोगों का कहना है कि रसगुल्ले का आविष्कार 1845 में नबीन चंद्रदास ने किया था। वे कोलकाता के बागबाजार में हलवाई की दुकान चलाते थे। उनकी दुकान आज भी केसी दास के नाम से संचालित है।
उधर, ओडिशा के लोगों का मानना है कि उनके राज्य में 12वीं सदी से रसगुल्ला बनता आ रहा है। उड़िया संस्कृति के विद्वान असित मोहंती ने शोध में साबित किया कि 15वीं सदी में बलरामदास रचित उड़िया ग्रंथ दांडी रामायण में रसगुल्ला की चर्चा है। वे तुलसी कृत मानस से पहले उड़िया में रामायण लिख चुके थे।
क्या डिफरेंस हैं दोनों जगह के रसगुल्लों में
बंगाली रसगुल्ला बिलकुल सफेद रंग का होता है। साथ ही यह स्पंजी होता है। वहीं, ओडिशा में हल्के भूरे रंग का रसगुल्ला बनता है। यह रसगुल्ला खाने में काफी मुलायम होता है। बताया जाता है कि 12वीं सदी में यह मिठाई भगवान जगन्नाथ को भोग के रूप में चढ़ाई जाती थी। इसे वहां ‘खीर मोहन’ और ‘पहाला रसगुल्ला’ भी कहा जाता है।