भारत के बंटवारे में वैसे तो बस पल भर लगा, लेकिन इसके पीछे की लंबी कहानी है। 14 और 15 अगस्त 1947 की बीच रात को पाकिस्तान नाम का एक नया देश इस दुनिया में आया और इसके साथ ही हिन्दुस्तान-ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हो गया। अंग्रेज तो देश से चले गए, लेकिन उसी दौरान यहां बंटवारे के दौरान दुनिया का सबसे बड़ा पलायन हुआ। हिन्दू-सिक्ख और मुस्लिमों के बीच हिंसा के कारण करीब 14 मिलियन लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे। आज़ादी तो मिली लेकिन एक दर्द अपने साथ लेकर आ रही थी।
आज़ादी का सुख और देश का बंटवारा होने का दर्द एक साथ नज़र आ रहा था। भारत के इतिहास में आज़ादी को लोग कहानीकार और लेखक मंटो की नजर से भी देखते हैं। 15 अगस्त की सुबह को सआदत हसन मंटो ने डर की निगाह से देखा, क्योंकि उनके शहर की सड़कों पर सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी, जिसे तब बॉम्बे के नाम से जाना जाता था। 11 मई को मंटो की 111वीं जयंती है। इस ख़ास अवसर पर जानिए उनके बारे में कुछ रोचक बातें…
समाज को असलियत दिखाने की जहमत उठाते थे मंटो
सआदत हसन मंटो का जन्म पंजाब प्रांत के वर्ष 1912 में पंजाब में लुधियाना जिले के समराला कस्बे के पास पपरौदी गांव में हुआ था। उनके पिता स्थानीय कोर्ट में न्यायाधीश हुआ करते थे और उनकी जड़ें कश्मीर से जुड़ी थी। मंटो अपने समय के सबसे विवादास्पद लेखकों में से एक थे, जो समाज को उसकी असलियत दिखाने की जहमत उठाते थे। उनकी कई बेहतरीन दास्तां वर्ष 1936 और 1948 के बीच की थीं। जब वो मुंबई में रहा करते थे। मंटो ने अपनी कहानियों को इसी कम वक्त में जिया था जिसमें समाज के बहुत से पहलुओं को उजागर किया गया।
फिल्म इंडस्ट्री, न्यूजपेपर और मैगजीन के लिए किया काम
एक पत्रकार और लघु कथा लेखक सआदत हसन मंटो वर्ष 1934 में पहली बार बॉम्बे आए थे। यहां उन्होंने मैगजीन, न्यूजपेपर और हिंदी फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट राइटिंग करना शुरू कर दिया। मंटो इस दौरान नूर जहां, नौशाद, इस्मत चुगताई, श्याम और अशोक कुमार के अच्छे दोस्त बन गए थे। उन दिनों वह फोरास रोड पर रहा करते थे। यह एरिया बॉम्बे के रेड लाइट एरिया कमाठीपुरा के बीच में है। यहां अपने आस-पास उन्होंने जो देखा, उसे अपने लेखन में भी उतारा। इस दौरान वर्ष 1941 में मंटो को उर्दू सेवा के लिए AIR में काम मिल गया था।
ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) में उन्होंने करीब 18 महीने काम किया। ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर और शायर-कवि एन.एम. राशिद के झगड़ा होने के बाद उन्होंने एआईआर में अपनी नौकरी छोड़ दी थी। जुलाई 1942 में सआदत हसन मंटो वापस बॉम्बे आए और फिर से फिल्म इंडस्ट्री के साथ काम करने लगे। उन्होंने इस दौरान कई फिल्मों के लिए लेखन किया। उनकी कई कहानियां का प्रकाशन भी हुआ। वह जनवरी 1948 में पाकिस्तान जाने से पहले तक मुंबई में ही रहे। वर्ष 1955 में शराब के कारण मंटो दुनिया से चले गए और अपने उस शहर कभी नहीं लौट सके, जिससे वो बेहद प्यार करते थे।
दलाल, सैलून मैडम, वेश्या, गैंगस्टर्स के बारे में खुल कर लिखा
देश के विभाजन पर सआदत हसन मंटो ने खूब लिखा है, ‘टोबा टेक सिंह’ उन्हीं कहानियों में से एक है, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। उन्होंने समाज के दलालों, सैलून मैडमों, वेश्याओं, गैंगस्टर्स के बारे में खुल कर लिखा। उनकी कहानियां सीधी और बिना डरी हुई होती थीं, जिसने समाज के कई लोगों को आवाज देने का काम किया। मंटो को अपनी छोटी कहानियों के लिए अश्लीलता के आरोप में छह बार अदालत में मुकदमों का सामना करना पड़ा था। सआदत हसन मंटो कहा करते ‘मैं एक जेबकतरा हूं जो अपनी जेब खुद काटता है’
मंटो आज भी हमारे साथ हैं और कल भी
वे जो हमारे बाद आएंगे
उसे अपने साथ पाएंगे।
उस वक्त की दुनिया मंटो को समझ ना सकी, ना ही आज की
समाज को आइना दिखाता सआदत हसन मंटो का साहित्य आज भी याद किया जाता है। उनके फसाने सच थे और समाज असल में क्या है वो बयां करते। उस वक्त की दुनिया मंटो को समझ ना सकी और आज की शायद समझने से दूर है। जो समझते हैं वो मंटो को अभी भी पाते हैं, उनकी कहानियों में समाज को बेहतरी के लिए समझ पाते हैं।
मालूम हो सआदत हसन मंटो को 20वीं शताब्दी में उर्दू के सबसे अच्छे लेखकों में से एक माना जाता है। मंटो के जीवन पर अबतक दो बायोपिक बन चुकी हैं। पाकिस्तानी एक्टर-डायरेक्टर सरमद खूसत ने वर्ष 2015 में मंटो पर फिल्म बनाई थी। इसके बाद साल 2018 में भारतीय फिल्म डायरेक्टर नंदिता दास ने ‘मंटो’ नाम से ही बायोपिक बनाई। इस फिल्म में मंटो का किरदार बॉलीवुड एक्टर नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने निभाया।
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