यदि कभी भी भारत के सबसे साहसी एडिटर के बारे में बात की जाएगी तो गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम ही जुबान पर होगा जो जेल में एक पैर के साथ 18 साल तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लड़े थे। आजादी की लड़ाई को भारतीय इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा।
हिन्दू और मुस्लिमों ने एक साथ मिलकर इस लड़ाई को लड़ा था। अंग्रेजों को कहीं ना कहीं ये बात पता थी। होना क्या था धार्मिक भावनाएं भड़ाकाई गईं और हिन्दू और मुस्लिमों के बीच खाई बड़ी की गई। बंगाल विभाजन से देश को बड़ा झटका लगा था। सांप्रदायिक दंगे अपने चरम पर थे और इसी बीच एक पत्रकार इन दंगों से बहुत ही ज्यादा परेशान था नाम था गणेश शंकर विद्यार्थी। दंगों को रोकते रोकते ही ये पत्रकार दंगों का ही शिकार हो गया।
दंगों को रोकने निकले और वापस नहीं आए
गणेश विद्यार्थी हमेशा से ही दंगों के खिलाफ लिखते और लड़ते थे। 1931 में कानपुर की बात है जहां पर दंगे फसाद बहुत ज्यादा हो रहे थे। कहा जाता है कि हमेशा की तरह वे इस बार भी दंगों को रोकने निकल पड़े थे। कई जगहों पर उनके प्रयासों से दंगों पर काबू पा लिया गया था लेकिन एक जगह वे दंगइयों की चपेट में आ गए।
इसके बाद गणेश की खूब खोज की गई मगर वे कहीं नहीं मिले। बहुत खोज के बाद उनकी लाश एक अस्पताल में पड़ी मिली। लाश इतनी ज्यादा फूली हुई थी कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो रहा था। 29 मार्च को उनको अंतिम विदाई दी गई।
विद्यार्थी ने बार-बार सांप्रदायिक प्रचार के शिकार लोगों के खिलाफ चेतावनी दी। वे इस बात को जान चुके थे कि अंग्रेज स्वतंत्र संग्राम की हवा को मोड़ने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा ले सकते हैं। इसलिए उन्होंने कई बार इसके खिलाफ लिखा। लेकिन किसने सोचा था कि इस हिंसा को रोकने निकले गणेश खुद इसके शिकार हो जाएंगे।
1931 के शुरुआती दिनों में, भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों की लोकप्रियता उनको कैद करने के बाद बढ़ रही थी। एक अलग मामले में गणेश विद्यार्थी भी जेल में थे लेकिन 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी से कुछ दिन पहले गणेश को रिहा कर दिया गया था।
ये सभी क्रांतिकारी विद्यार्थी के बहुत करीबी थे और उनके लिए बहुत बड़ा सम्मान रखते थे। वास्तव में, यह कहा जा सकता है कि सभी कांग्रेस नेताओं के बीच विद्यार्थी शायद उनके सबसे करीब थे। उनकी उच्च संगठन क्षमता और उनके जनाधार को देखते हुए यह बहुत संभावना थी कि विद्यार्थी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी के खिलाफ शायद सबसे बड़ा विपक्ष जुटाएंगे। इसे ध्यान में रखते हुए, औपनिवेशिक शासन ने कानपुर में एक ही समय में तीन क्रांतिकारियों को मार डाला गया था।
चूंकि विद्यार्थी जी खुद जेल से बाहर आए थे इसलिए उन्हें इस संभावना के विरुद्ध लोगों को जुटाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। हालांकि जब एक बार हिंसा की लपटें जलने लगीं तो उन्होंने कई लोगों के लिए बचाव के कई प्रयास किए। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़े सम्मान के कारण वही एक ऐसा व्यक्ति था जो लोगों को बचाने के लिए दोनों समुदायों के मुहल्लों जाकर शांति की अपील कर सकता था। लोगों ने उन्हें मुश्किल परिस्थितियों से दोनों समुदायों की महिलाओं सहित लोगों को बचाते हुए देखा था।
उनकी मौत के पीछे बड़ा संयश बना हुआ रहा। कहा जाता रहा है कि उनको दंगों में मार दिया गया। लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी के बाद गणेश विद्यार्थी को एक बड़े क्रांतिकारी के रूप में देखा जा रहा था।