पुलवामा आतंकी हमला: क्या मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी तरीके से निभाई?

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मीडिया ने पुलवामा आतंकवादी हमले को काफी बड़ी कवरेज दी। यह बहुत बड़ी घटना है जिमसें तीन दशकों का सबसे बड़ा हमला जम्मू कश्मीर में सामने आया। घटना के बारे में हर किसी को पता ही होगा। जैश ए मोहम्मद से ताल्लुख़ रखने वाले एक युवक ने कार द्वारा आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के काफिले पर टक्कर मारी जिसमें 42 जवानों की मौत हो गई।

मीडिया जिस तरह से इसको कवरेज दे रहा है उससे एक बार फिर यह सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाओं को कैसे कवर किया जाना चाहिए। इतनी बड़ी घटना यह है तो कुछ नियमों का पालन इसकी रिपोर्टिंग या टॉक शो में करना चाहिए? इसी पर बात जरूरी है।

इंसाफ जरूरी है, मगर बदला नहीं

सबसे बड़ा और जरूरी सिद्धांत जिसे मीडिया को देखने की जरूरत है वह यह है कि जो मीडिया करता है उससे देश में सामाजिक सद्भाव और शांति भी बिगड़ सकती है। इससे होगा क्या? हमें समझना होगा कि पाकिस्तान और उसके द्वारा पलने वाले आतंकवादी ग्रुप्स यही अशांति चाहते हैं। राष्ट्रीय मीडिया में लगभग सभी बड़े दिग्गज नाम आतंकवाद के इस जाल में फंस गए हैं। यह मीडिया की जिम्मेदारी है कि भारत पाकिस्तान घटनाक्रम का बुरा असर भारतीय समाज के किसी भी वर्ग पर नहीं पड़े।

मीडिया कवरेज का एक और जरूरी पहलू यह भी है कि इससे सरकारी नीतियों और कार्यों पर प्रभाव पड़ता है। यह मीडिया के लिए एक समस्याग्रस्त क्षेत्र है जो दोनों सेंटिमेंट्स को दिखाता है और इससे ही यह प्रभाव उत्पन्न होता है। कोई भी भारत सरकार लोगों की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील नहीं हो सकती। कई चीजें मेनेज करने की सरकार को जरूरत होती है ताकि लोगों में शांति बनाई रखी जा सके और जो एक्शन और जरूरत है उसे पूरा किया जा सके और यहां मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।

अगर मीडिया लोगों के गुस्से को पूरी तरह से हवा देता है तो असल में यह उनके मूड को और ज्यादा अग्रेसिव करता है। इससे एक तंत्र के रूप में मीडिया फेल होता नजर आता है। पुलवामा हमले के बाद आपको मीडिया में बहुत कुछ नजर आया ही होगा। अधिकतर चैनलों ने अपने एंकर्स को खुली छूट दी और सभी एक स्वर में चिल्लाने भी लगे बजाय इसके सभी मीडिया कर्मियों को घटना की गंभीरता को समझने की जरूरत थी।

कुछ चैनल पाकिस्तान के खिलाफ जल्द से जल्द एक्शन के लिए गरिया रहे थे। कुछ ने तो बदला लेने के लिए हैशटैग चलाने तक शुरू कर दिए। न्याय और बदले के बीच के अंतर को मीडिया भूल गया।

घटना को समझाने की जिम्मेदारी एक्सपर्ट्स पर छोड़ देनी थी

15 फरवरी की सीसीएस बैठक के बाद सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कूटनीतिक कदमों की घोषणा की। साफ पता चलता है कि यह ऐसा दिखाता है कि पाकिस्तान के खिलाफ सार्थक कार्रवाई शुरू हो चुकी थी। इन कदमों में मोस्ट फेवर्ड नेशन स्टेटस (एमएफएन) का निलंबन और पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए एक अभियान शुरू करने का निर्णय शामिल था। अधिकांश मीडिया चैनलों ने इस स्टोरी को ऐसा ही दिखाया जैसा कि सरकार चाहती थी। इस पर किसी भी तरह का विश्लेषण, इसका इम्पेक्ट कुछ भी सामने नहीं रखा गया।

एक सामान्य नियम के चैनल में बाहर से मेहमान बुलाए जाते हैं।  जो किसी क्षेत्र में एक्सपर्ट होते हैं। हालांकि, कभी-कभी मेहमान डेसीबल को बढ़ाने का काम करते हैं और चैनल की टीआरपी बढ़ाने में योगदान देकर चले जाते हैं।

कुछ चैनलों ने टिप्पणीकारों को यह तक करने की अनुमति दी कि इन कदमों ने आतंकवादी हमले पर भारतीय क्रोध का संकेत दिया लेकिन पाकिस्तान को आतंकवाद को प्रायोजित करने से यह रोक नहीं पाएघा। कुछ पेनलिस्ट ने तो यह तक कहा कि एमएफएन की वापसी से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान नहीं होगा क्योंकि यह देश भारतीय बाजार पर निर्भर नहीं है।

मानवाधिकार को मानवाधिकार ही रहने देना चाहिए

आतंकवादी हमलों के मानवीय हित पहलुओं को शायद ही टाला जा सकता है क्योंकि वे शहीदों के परिवारों की पीड़ा को व्यक्त करते हैं। सरकार से मीडिया को अपील करनी चाहिए कि शहीद के परिवार को क्या दिया जाना चाहिए। अधिकांश चैनलों ने इन पहलुओं को नहीं देखा। सिर्फ दु:ख का कवरेज ठीक नहीं है। सरकार की नीतियां शहीदों के परिवारों के साथ क्या करती है वो भी चिंता का विषय होना चाहिए।

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