जयंतीः क्रांतिकारी उधम सिंह ने इंग्लैंड जाकर लिया था जलियांवाला हत्याकांड का बदला

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Udham-Singh-Biography

हर किसी भारतीय के दिल में आज भी जलियांवाला बाग हत्याकांड की दोषी अंग्रेजी हुकूमत के प्रति घृणा भर देता है। जब हमारे दिलों का यह हाल है तो उस समय के लोगों में अंग्रेजों के प्रति कितनी नफरत होगीं। शायद प्रतिशोध की भावना लेकर जिए होंगे कई क्रांतिकारी, उनमें से एक थे सरदार उधम सिंह। उधम सिंह ने इस हत्याकांड का प्रतिशोध लेने की मन में ही नहीं ठानी, बल्कि उस प्रण को पूरा करके ही चैन लिया। उन्हें वर्ष 1940 में 31 जुलाई के​ दिन फांसी की सजा दी गई थी। आज 26 दिसंबर को उधम सिंह की 123वीं जयंती है। इस खास मौके पर जानिए उनके प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ रोचक बातें…

सरदार उधम सिंह का जीवन परिचय

सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर, 1899 को पंजाब संगरूर जिले के सुनाम गांव में काम्बोज परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उन्हें अपने बड़े भाई मुक्तांसिंह के साथ अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उनके बचपन का नाम शेर सिंह था और अनाथालय में उधमसिंह नाम मिला। वर्ष 1917 में बड़े भाई साधु सिंह (मुक्तासिंह) का देहांत हो गया। ऐसे में उधम पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन वे हताश नहीं हुए और वर्ष 1918 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसके बाद उन्होंने वर्ष 1919 में अनाथालय छोड़ दिया।

जलियांवाला बाग हत्याकांड के प्रत्यक्ष गवाह थे उधम

यह वह घटना थी जिसने युवा उधम सिंह के जीवन का उद्देश्य निश्चित कर दिया था। 13 अप्रैल, 1919 को रोलेट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुई एक विशाल जनसभा पर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर के आदेश पर एकत्रित निर्दोष और निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गईं।

इस घटना में ब्रिटिश सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इसमें 370 लोगों को मारे गए थे और 1200 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। सर माइकल फ्रांसिस ओ डायर ने वर्ष 1912 से 1919 तक भारत में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। उन्होंने रेजिनाल्ड डायर द्वारा जलियांवाला बाग में चल रही सभा पर की गई कार्रवाई का समर्थन किया और इसे ‘सही कार्रवाई’ कहा।

Sardar Udham Singh

1934 में लंदन पहुंचकर की अपनी प्रतिज्ञा पूरी

अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उधम सिंह वर्ष 1934 में लंदन पहुंचे। वहां पर वे 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। उधम सिंह ने वहां भ्रमण व अपने उद्देश्य के लिए एक कार खरीदी। उन्होंने छह गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी खरीद ली और माइकल ओ डायर को सबक सिखाने के लिए सही समय का इंतजार करने लगे।

13 मार्च, 1940 की शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। यह समारोह था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का। हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी। इस किताब के भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर एक रिवॉल्वर रख दिया गया था।

निडरता पूर्वक अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया

सभा के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने जनरल रेजिनाल्ड डायर के निर्णय (जलियांवाला बाग नरसंहार) को सही बताने वाले माइकल ओ डायर पर अंधाधुंध गोलिया चला दीं। दो गोलियां डायर को लगीं,  जिससे वहीं पर उसकी मृत्यु हो गई। उधम सिंह ने निडरता पूर्वक अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया और वहां से भागा नहीं। उधम सिंह को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। जलियांवाला हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और अन्य बीमारियों के कारण मौत हो गई थी।

इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि डायर की हत्या के पीछे उधम सिंह का मकसद जलियांवाला बाग का बदला लेना नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार को एक कड़ा संदेश देना था और भारत में क्रांति भड़काना था। उधम सिंह भगत सिंह के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। दोनों दोस्त भी थे। भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी। दोनों ही नास्तिक प्रवृति के थे। दोनो हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे।

क्रांतिकारी ऊधम सिंह को पेंटनविले जेल’ में दी गयी फांसी

4 जून, 1940 को ऊधम सिंह को माइकल डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई, 1940 को उन्हें ‘पेंटनविले जेल’ में फांसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया। 31 जुलाई, 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गांव में उनकी समाधि बनी हुई है।

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