मशहूर पाकिस्तानी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज्म ‘हम देखेंगे’ पर इन दिनों काफी विवाद में है। इस नज्म का इस्तेमाल तब किया गया जब नागरिकता संशोधन एक्ट के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहा था। इस वजह से इसे कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। इस नज्म को सांप्रदायिक माना जा रहा है। इसका फैसला अब आईआईटी कानपुर को करना है। उसके द्वारा एक जांच कमेटी गठित की गई है जो यह जांच करेगी कि क्या फ़ैज़ की यह नज्म हिंदू विरोधी है या नहीं?
कब लिखी थी फ़ैज़ ने यह नज्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज्म, शायरी और गजरों में बगावती सुर दिखते हैं। वह कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित थे। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान में सियासत उभरने लगी तो शुरुआत से ही आम लोगों पर जुल्म होने लगा, तभी से फ़ैज़ पाकिस्तान की सत्तारूढ सरकार के खिलाफ लिखते रहे। लेकिन वर्ष 1977 में जब पाक में तख्तापलट हुआ और सेना प्रमुख ज़िया उल हक़ ने सत्ता हथिया ली तब वर्ष 1979 में फैज़ की कलम से ‘हम देखेंगे’ निकली। फ़ैज़ का निधन वर्ष 1984 में हो गया था।
गौरतलब है कि पाक में ज़िया-उल-हक़ की तानाशा सत्ता थी। उसके समय में पाकिस्तान में महिलाओं के लिए साड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था, साड़ी पहनने को ग़ैर-इस्लामी करार दिया गया था। इसके विरोध में इकबाल बानो ने वर्ष 1986 में ज़िया की तानाशाही के खिलाफ विरोध करते हुए सफेद रंग की साड़ी पहन कर यह नज्म गाई थी। इसे लाहौर के अल-हमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडिटोरियम में गाया था। इस दौरान करीब 50,000 लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई थी। तब से यह नज़्म सरकार का विरोध करने वालों की आवाज़ बन गयी।
इस प्रकार तब से लेकर आज तक इसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के कई गायक अपनी आवाज दे चुके हैं।