हनुमान की जाति वाली बहस में अब तर्कों का अंतिम संस्कार हो चुका है!

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हमारे समाज का अपने 33 करोड़ भगवान से कुछ इस तरह का लगाव है हम सारे काम छोड़कर कभी भगवान राम के अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं तो कभी हनुमान का जाति सर्टिफिकेट ढूंढ़ने में बौद्धिकता गिराने की सारी हदें पार कर जाते हैं।

फिलहाल देश में राम नाम का उछाल थोड़ा शांत है तो हनुमान जी ने चुनावों के समय से अब तक अपनी चर्चा का दौर बराबर संभाल रखा है या फिर यूं कहे कि हमारे चुने हुए जन प्रतिनिधि कभी राम को पकड़ लेते हैं तो कभी हनुमान पर अपने ज्ञान का बखान करते हैं।

भगवान हनुमान की जाति बताने का सिलसिला कुछ ऐसा शुरू हुआ कि वो दलित, आदिवासी से लेकर मुसलमान और अब जाट हो गए हैं। इन सब जातियों के नाम बताने में एक बात जो कॉमन है वो ये कि हर कोई जाति बता रहा है जो ये दर्शाता है कि हमारा समाज आज भी जातिगत आबोहवा में खुद को सुरक्षित महसूस करता है। हर नेता अपनी जाति या समाज का तमगा हनुमान पर चस्पा कर रहा है।

एक बार के लिए सोचिए कहीं एक दिन ऐसा हो कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद हनुमान जी की जाति पर मुहर लगा दी, फिर इस निर्रथक बहस का अंत होगा औऱ फिर ये जरूर देखना होगा कि इससे किसे फायदा हुआ होगा?

क्या देश का किसान हनुमान का जाति सर्टिफिकेट अपनी कुछ बीघा जमीन पर लगाएगा?

क्या बेरोजगारों को इंटरव्यू में हनुमान जी के जातिगत इतिहास पर सवाल पूछे जाएंगे?

क्या नेता हनुमान जी के बारे में नॉलेज के आधार पर वोट मांगने आएंगे?

ऐसा कुछ नहीं होगा चाहे आप किसी भी भगवान का कास्ट सर्टिफिकेट कहीं भी पेश कर दें, लेकिन इस बेतुकी बहस की आड़ में हम इस राजनीति और नेताओं से उन वाजिब सवालों के जवाब मांगने के हमारे अधिकार को खो रहे हैं।

हमें यह सोचना होगा कि कोई नेता या ज्ञानी पुरुष हमें किसी भी भगवान की जाति बताए हमें उसमें ना उलझते हुए सरकार पर दबाव बनाना चाहिए, हमारे अधिकारों के प्रति आवाज उठानी चाहिए। वैसे देखा जाए तो हनुमान जी अगर आज होते तो वो फिलहाल इस दुनिया के सबसे परेशान इंसान होते।

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