केंद्र सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जा रही विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को वाजिब करार दिया है। सरकार का कहना है कि ये योजनाएं हिंदुओं के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती हैं और न ही समानता के सिद्धांत के खिलाफ हैं। दरअसल, केंद्र सरकार ने हिंदू समुदाय के छह सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई एक याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में कहा है कि उसके द्वारा बनाई गई योजनाएं कानूनी रूप से वैध हैं। ये योजनाएं विभिन्न स्तरों पर अल्पसंख्यक समुदायों के समावेशी विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों के बीच असमानता कम करने का लक्ष्य
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि ये योजनाएं अल्पसंख्यक समुदायों के बीच असमानताओं को कम करने और शिक्षा, रोजगार, कौशल के स्तर में सुधार करने और नागरिक सुविधाओं में कमियों को कम करने के लिए हैं। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के द्वारा दायर इस हलफनामे में 13 योजनाओं के बारे में कहा है कि ये संविधान में निहित समानता के सिद्धांतों के विपरीत नहीं हैं और अन्य समुदायों के सदस्यों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती हैं।
याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद-27 का दिया था हवाला
नीरज शंकर सक्सेना समेत छह लोगों की तरफ से साल 2019 में दाखिल एक याचिका में केंद्र की तरफ से अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनाएं चलाने को गलत बताया गया। याचिका में कहा गया था कि इन योजनाओं के लिए सरकारी खजाने से 4700 करोड़ का बजट रखा गया है, जबकि संविधान में इसका कोई प्रावधान नहीं है।
एडवोकेट विष्णु शंकर जैन के माध्यम से दायर की गई इस याचिका में यह भी कहा गया है कि संविधान का अनुच्छेद-27 करदाताओं से लिए गए पैसे को सरकार द्वारा किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने के लिए खर्च करने से रोकता है। लेकिन सरकार वक्फ संपत्ति के निर्माण से लेकर अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों व महिलाओं के उत्थान के नाम पर हजारों करोड़ रुपए खर्च कर रही है। यह बहुसंख्यक समुदाय के छात्रों व महिलाओं के समानता के मौलिक अधिकार का हनन है।
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