गोपाल राम गहमरी: हिन्दी जासूसी उपन्यास के जनक, जिनको पढ़ने के लिए लोगों ने सीखी हिन्दी

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हिंदी साहित्य का इतिहास ज्यादा पुराना तो नहीं है फिर भी इसके साहित्यकारों ने जिस तरह से हिन्दी को बुलंदियों पर पहुंचाया है, उससे हिन्दी बहुत लोकप्रिय भाषा बन गई है। ऐसे ही साहित्यकारों में गोपाल राम गहमरी हैं जिन्हें हिन्दी साहित्य में जासूसी उपन्यास के जनक माना जाता है।

वह हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार थे। उन्होंने 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘जासूस’ नामक पत्रिका का संचालन किया। उन्होंने दो सौ से अधिक उपन्यास लिखें, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, जिनमें प्रमुख रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘चित्रागंदा’ भी थी। वह ऐसे लेखक थे जो हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या में इजाफा कर सके। हिन्दी भाषा में देवकीनंदन खत्री के बाद यदि किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वह गोपाल राम गहमरी ही थे।

जीवन परिचय

गोपाल राम गहमरी का जन्म सन् 1866 (पौष कृष्ण 8 गुरुवार संवत् 1923) में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गहमर में हुआ था। उनके पिता का नाम रामनारायण था। जब वह छह मास के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया और इनकी माँ इन्हें लेकर अपने मायके गहमर चली आईं। इनकी प्रारंभिक शिक्षा यहीं संपन्न हुई। वहीं से वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा ग्रहण की।

1879 में मिडिल पास किया। फिर वहीं गहमर स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और खुद भी उर्दू और अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे। इसके बाद पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस शर्त को स्वीकार कर लिया। गहमर से अतिरिक्त लगाव के कारण उन्होंने अपने नाम के साथ अपने ननिहाल को जोड़ लिया और गोपाल राम गहमरी कहलाने लगे। गहमरी को लिखने का शौक था, वह पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं छपने के लिए भेजा करते थे। बंबई में जब रहने लगे तो वहां भी उनकी कलम गतिशील रही।

हिन्दी ‘जासूसी’ उपन्यासों के जनक

गोपाल राम गहमरी पेशे से पत्रकार थे। वह उस समय के अकेले ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे को अपने शब्दों में दर्ज किया था। उनके सम्पादन में प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं की एक लंबी श्रृंखला है। इनमें प्रतापगढ़ के कालाकांकर से प्रकाशित ‘हिन्दुस्थान’ दैनिक से लेकर बंबई व्यापार सिन्धु, गुप्तगाथा, श्री वेंकटेश्वर समाचार और भारत मित्र जैसे ख्यात नाम शामिल हैं।

वह कहीं भी बहुत अधिक समय तक नहीं टिक सके। जिसका एक प्रमुख कारण कई पत्रिकाओं का आर्थिक अभाव में बंद हो जाना था। दूसरी और अहम वजह यह थी कि एक तरफ उनमें हिंदी भाषा के लिए कुछ अलग और वृहत करने की बेचैनी थी और दूसरी ओर उनके भीतर पनपती ‘जासूस’ की रूपरेखा भी।

उन्होंने मासिक पत्रिका ‘जासूस’ का प्रकाशन शुरू किया, जिसका विज्ञापन भी उनके ही संपादन में आने वाले अखबार ‘भारत मित्र’ में दिया। इसने उस वक्त के नजरिए से बाजार में हलचल पैदा कर दी थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि इसके प्रकाशित होने से पहले ही सैकड़ों पाठक इसकी वार्षिक सदस्यता ले चुके थे। वर्ष 1900 के दौरान किसी पत्रिका के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार घटित हुआ था। उस जमाने में हुई इस प्री बुकिंग से उनको मिलने वाली राशि 175 रु थी।

देवकी नंदन खत्री और गोपाल राम गहमरी के द्वारा शुरू ‘जासूसी लेखन’ की परंपरा साहित्यिक पंडितों की उपेक्षा और तिरस्कार के बावजूद भी इन दोनों की बदौलत लंबे समय तक चलती रही। इस परंपरा से इस विधा को न जाने कितने नए लेखक मिले। इब्ने सफी, कुशवाहा कान्त, रानू, गुलशन नंदा, कर्नल रंजीत, ओमप्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा जैसे नाम इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए सामने आये।

हिन्दी में ‘जासूस’ शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी को जाता है। उन्होंने लिखा है कि ‘1892 से पहले किसी पुस्तक में जासूस शब्द नहीं दिखाई नहीं पड़ा था।’ उन्होंने अपनी पत्रिका का नामकरण ऐसे किया, जिससे आम पाठक आसानी से उसकी विषय वस्तु को समझ सके। ‘जासूस’ शब्द से हालांकि यह बोध होता है कि इसमें जासूसी ढंग की कहानियां ही प्रकाशित होती होंगी, लेकिन ऐसा नहीं था। उसके प्रत्येक अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं भी नियमित रूप से छपती थी।

‘जासूस’ ने अपने शुरूआती अंकों से ही पाठकों में बहुत लोकप्रियता प्राप्त की। इसकी अपार लोकप्रियता को देखकर गोपालराम गहमरी जब जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए जिसके बाद फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा और न इसकी परवाह की कि साहित्य के तथाकथित अध्येता उनके बारे में क्या राय रखते हैं।

गहमरी के योगदान को केवल जासूसी उपन्यासों तक सीमित किया जाता है, बल्कि उनका योगदान हिंदी गद्य साहित्य में अद्वितीय है। हिन्दी अपने विकास काल में जब हिंदी गद्य साहित्य ब्रजभाषा व खड़ीबोली का द्वन्द झेल रहा था तब गहमरी न केवल खड़ीबोली के पक्ष में खड़े होते हैं बल्कि ब्रजभाषा के कई पक्षकारो को खड़ीबोली के पक्षकारो में शामिल करते हैं। सहज, सुगम, सुंदर और सुबोध हिंदी-प्रचार गहमरी जी की साहित्य सेवा का मुख्य उद्देश्य था।

भले ही आज अकादमिक और साहित्यिक भेदभाव के चलते जासूसी साहित्य को अछूतों की श्रेणी में रखा गया हो, परन्तु हकीकत यह है कि हिंदी गद्य साहित्य के विकास में गोपाल राम गहमरी के जासूसी उपन्यासों के महत्तवपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

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