हिन्दी भाषा को लेकर दक्षिण भारत में विवाद, क्या है मोदी सरकार की नीति?

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उत्तर और दक्षिण भारत आपस में कितने अलग हैं? पिछले पांच वर्षों में दक्षिण राज्यों पर भारतीय जनता पार्टी अपनी सोच लागू करने की कोशिश करती आई है और इससे इन इलाकों की चिंता काफी बढ़ गई है। खासकर तमिलनाडु और केरल जैसे क्षेत्रों में यह ज्यादा देखने को मिलता है जहां भाजपा पार्टी की उपस्थिति बहुत कम है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरु हो चुका है और पहला विवाद इसी में दिखाई दे रहा है।

सरकार ने इस सप्ताह राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक मसौदा तैयार किया जो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख कृष्णस्वामी कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। इस ड्राफ्ट में कहा गया है कि तीन भाषाओं के फॉर्मूले को लागू किया जाना चाहिए।

यह नीति 1960 के दशक की है जब सरकार का मानना था कि गैर-हिंदी राज्यों में प्राथमिक स्कूल के छात्रों को हिंदी सीखाने से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि भारत की लिंक भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी हो।

तीन भाषाओं का फॉर्मूला हमेशा से विवादास्पद रहा है। इसका तमिलनाडु द्वारा विरोध किया गया था। लगातार सरकारों ने इस बात को मुद्दा बनाया कि शिक्षा एक राज्य का विषय है और यह दो-भाषा की नीति (तमिल और अंग्रेजी) छात्रों को यह तय करने की स्वतंत्रता देती है कि वे किस तीसरी भाषा का अध्ययन करना चाहते हैं। अन्य दक्षिणी राज्यों ने भी नीति का विरोध किया है।

उत्तर भारत में बीजेपी हो या कांग्रेस हो इन दोनों पार्टियों का मानना रहा है कि भारत को और अधिक एकीकृत होने के लिए एक सामान्य भाषा की आवश्यकता है और इसी से इन राज्यों में तनाव बना हुआ है। कांग्रेस और भाजपा इन इलाकों में अंग्रेजी को एक “विदेशी भाषा” के रूप में भी देखती आई है जो भारत को एकीकृत करने में कोई ठोस भूमिका नहीं निभा सकती। 1960 के दशक में और इसके बाद भी इसके कारण दक्षिण में हिंदी विरोध होता आया है।

शिक्षा नीति का केवल मसौदा तैयार किया गया था लेकिन इस पर भी छोटे स्तर पर विरोध देखने को मिला। द्रविड़ मुनेत्र कषगम के प्रमुख स्टालिन ने कहा कि हिंदी को सभी पर लागू करना “एक मधुमक्खी पर पत्थर फेंकने” जैसा होगा। ट्विटर पर #StopHindiImposition ट्रेंड करने लगा। इस विरोध के बाद केंद्र को यह कहते हुए स्पष्टीकरण देना पड़ा कि नीति केवल एक मसौदा या ड्राफ्ट है और किसी भी राज्य पर कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी।

हालांकि विवाद उस एक बड़े रुझान को दर्शाता है जो अगले पांच वर्षों में बढ़ भी सकता है। हिंदी “हार्टलैंड” पार्टी होने की अपनी पहले की छवि के विपरीत भाजपा अब गैर-हिंदी राज्यों में महत्वपूर्ण पैठ जमा रही है। लेकिन कर्नाटक के अलावा दक्षिण में अभी भी यह कमजोर बनी हुई है।

राजनीति से अलग, संघवाद के व्यापक सवाल हैं। चूंकि दक्षिणी राज्यों की आबादी कम है, क्या उन्हें अगले वित्त आयोग में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा जो भारत की केंद्र सरकार और व्यक्तिगत राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को निर्धारित करता है? क्या भाजपा दक्षिण में उन लोगों के भोजन और सांस्कृतिक आदतों में बदलाव करना चाहती है, जो काफी अलग हैं? केंद्र अगर इन सवालों का जवाब दे पाता है तो नरेन्द्र मोदी के इस दूसरे काल की नीति का अनुमान लगाया जा सकता है।

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