बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘काका’, जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में…
ये पंक्तियां काका हाथरसी की हैं जो बड़े-बड़े मुद्दों को बड़ी आसानी से हास्य के माध्यम से कह दिया करते थे। आज ही के दिन यानि 18 सितंबर को काका का जन्म उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुआ था। वे हिंदी हास्य के ख़्यातनाम कवि थे। आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं। काका हाथरसी के व्यंग्य का मूल उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में पनपते दोष, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकृष्ट करना था।
वसीयत में लिखा था कि मेरी मौत पर रोना मत
सुप्रसिद्ध हिंदी व्यंग्यकार और हास्य कवि काका हाथरसी की आज संयोग से 115वीं जयंती और 26वीं पुण्यतिथि हैं। यह एक संयोग मात्र ही था कि जिस दिन काका का जन्म हुआ उसी तारीख़ को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। उनका जन्म 18 सितंबर, 1906 को उत्तर प्रदेश राज्य के हाथरस में हुआ था और 18 सितंबर, 1995 को वे इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे। काका हाथरसी का असली नाम प्रभु लाल गर्ग था। उन्हें हिंदी व्यंग्य का मूर्धण्य कवि माना जाता है।
अपना जीवन मुफ़लिसी में गुजारने के बावजूद काका हाथरसी के चेहरे पर कभी दर्द नहीं दिखा, वे हमेशा हंसते रहने के पक्षधर थे। यहां तक कि उन्होंने अपनी मौत के दिन भी किसी को रोने नहीं दिया। काका ने अपनी वसीयत में लिखा था कि वे चाहते हैं कि उनके जाने पर कोई रोए नहीं, बल्कि सभी हंसते हुए उन्हें विदा करें। जब श्मशान में काका की चिता जल रही थी तो उस दिन वहां विशाल हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। उनके शव को ऊंटगाड़ी पर रखकर आधी रात को श्मशान में ले जाया गया और फिर वहां हास्य कवि सम्मेलन हुआ।
‘घुटा करती हैं मेरी हसरतें’ ने दिलाई पहचान
युवावस्था में काका हाथरसी इगलास से हाथरस वापस आ गए और वहां नौकरी करने लगे थे। लेकिन कुछ दिन बाद उनकी नौकरी छूट गई। काका चित्रकला में दक्ष थे। उन्होंने चित्रशाला चलाई, लेकिन वह नहीं चलीं। उन्हें संगीत का भी अच्छा ज्ञान था। इसके बाद उन्होंने ‘संगीत’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। चूंकि उन्हें लिखने का शौक था इसलिए उन्होंने हर परिस्थिति में लिखना जारी रखा।
काका हाथरसी की पहली कविता ‘घुटा करती हैं मेरी हसरतें’, इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘गुलदस्ता’ में छपीं। यह कविता काका के जीवन के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुई और उन्हें पहचान मिलने लगी थी। वर्ष 1957 में लाल किले पर हुए कवि सम्मेलन में काका को जब बुलावा आया तो उन्होंने अपनी शैली में काव्यपाठ किया। वर्ष 1966 में ब्रजकला केंद्र के कार्यक्रम में काका को सम्मानित किया गया। वर्ष 1985 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने काका हथरसी को ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया था। साल 1989 में उन्हें अमेरिका के बाल्टीमोर में ऑनरेरी सिटीजन का सम्मान मिला।
प्रमुख रचनाएं
‘आई मैं आ गए’, ‘कॉलेज स्टूडेंट’, ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’, ‘नगरपालिका वर्णन’, ‘नाम रूप का भेद’, ‘जम और जमाई’, ‘दहेज की बारात’, ‘हिंदी की दुर्दशा’, ‘पुलिस महिमा’, ‘घूम माहात्म्य’, ‘सुरा समर्थन’, ‘मोटी पत्नी’, ‘पंचभूत’, ‘पिल्ला’, ‘तेली कौ ब्याह’, ‘मुर्गी और नेता’, ‘कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ’, ‘भ्रष्टाचार’, ‘अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार’, ‘एयर कंडीशन नेता’, ‘खटमल’, ‘मच्छर युद्ध’, ‘सारे जहां से अच्छा’ आदि।
कविता संग्रह
‘काका की फुलझड़ियां’, ‘काका के प्रहसन’, ‘लूटनीति मंथन करि’, ‘खिलखिलाहट’, ‘काका तरंग’, ‘जय बोलो बेईमान की’, ‘यार सप्तक’, ‘काका के व्यंग्य बाण’ आदि।
काका की रचनाओं के कुछ अंश:
कोतवाल बन जाये तो, हो जाये कल्यान
मानव की तो क्या चले, डर जाये भगवान
डर जाये भगवान, बनाओ मूँछे ऐसीं
इँठी हुईं, जनरल अयूब रखते हैं जैसीं
कहँ ‘ काका ‘, जिस समय करोगे धारण वर्दी
ख़ुद आ जाये ऐंठ – अकड़ – सख़्ती – बेदर्दी
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नेता अखरोट से बोले किसमिस लाल
हुज़ूर हल कीजिये मेरा एक सवाल
मेरा एक सवाल, समझ में बात न भरती
मुर्ग़ी अंडे के ऊपर क्यों बैठा करती
नेता ने कहा, प्रबंध शीघ्र ही करवा देंगे
मुर्ग़ी के कमरे में एक कुर्सी डलवा देंगे
……………
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा
सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
………………
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
………………
पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ
भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज
बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता
देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता
कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला
पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला
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बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो, कमाओ, इसको देते जाओ
कहॅं ‘ काका ‘ कविराय, सासरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्यौहार, मिठाई भर-भर थाली
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