जम्मू-कश्मीर में सरकार और अलगाववादियों के बीच बातचीत शुरू होने की उम्मीद के बीच भारतीय जनता पार्टी आ ही जाती है।
पिछले हफ़्ते जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल और राज्य प्रशासन प्रमुख सत्यपाल मलिक और अलगाववादी नेतृत्व के हुर्रियत (एम) धड़े के नेता मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ के बीच एक सकारात्मक पक्ष सामने आया। सत्यपाल मलिक ने कहा कि अलगाववादी नेतृत्व बातचीत के लिए तैयार था। फारूक ने इस पर कहा कि उनके गुट ने हमेशा बातचीत के लिए पुश किया था। आगे फारूक ने कहा कि सकारात्मक और सार्थक बातचीत होने की जरूरत है।
लेकिन जम्मू-कश्मीर के प्रभारी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अविनाश राय खन्ना ने कहा कि सरकार ने हुर्रियत के साथ बातचीत के लिए दरवाजा खुला छोड़ा था बशर्ते बाद में उनके द्वारा संविधान में विश्वास दिखाया जाए और कानून को बहाल करने का काम किया जाए। पार्टी की राज्य इकाई ने इस स्थिति को हवा देते हुए कहा कि अच्छे उपाय के लिए बिना किसी शर्त के बातचीत करना ठीक नहीं होगा। इन कमेंट्स के साथ भाजपा सरकार और अलगाववादियों के बीच पुराना संघर्ष फिर से लौट आया।
कश्मीर में बातचीत का भी एक इतिहास रहा है। 2000 के दशक की शुरूआत में जब सरकार ने अलगाववादियों के लिए पहल की तो हुर्रियत (एम) के नेताओं ने सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की। बातचीत का समर्थन करने वाले सबसे प्रमुख नेताओं में से एक अब्दुल गनी लोन की मई 2002 में हत्या कर दी गई थी। इसके कुछ दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को घाटी का दौरा करना था।
सरकार द्वारा नियुक्त समितियों ने कोशिश की और बातचीत की शर्तों पर आगे बढ़ने में असफल रहीं। हुर्रियत का प्रतिनिधिमंडल 2004 में एक यात्रा पर नॉर्थ ब्लॉक गया जो 2004 के शुरुआत में था। इस बीच जैसे-जैसे घाटी में यह बातचीत बदनाम हुई जिन अलगाववादी नेताओं ने उनमें भाग लिया उन्होंने घाटी में समर्थन खो दिया और बातचीत के खिलाफ स्थापित नेता सैयद अली शाह गिलानी को राजनीतिक फायदा पहुंचा।
2010 में जब कश्मीर घाटी में घातक विरोध प्रदर्शन हुआ तो हुर्रियत नेतृत्व के विभिन्न गुटों के बीच एकता का एक नया पल उभरा। गिलानी, फ़ारूक़ और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासीन मलिक के समर्थन में बातचीत के लिए पाँच-सूत्रीय फॉर्मूला सामने रखा।
इसमें थे कश्मीर को एक अंतरराष्ट्रीय विवाद के रूप में मान्यता देना, क्षेत्र का विमुद्रीकरण शुरू करना, राजनीतिक कैदियों को रिहा करना, नागरिक हत्याओं में शामिल सुरक्षा कर्मियों को दंडित करना, हत्याओं और गिरफ्तारी को रोकना। लेकिन दिल्ली ने जोर देकर कहा कि कश्मीर एक “आंतरिक मामला” है और दिल्ली वहां के लोगों के साथ इस शर्त पर बातचीत चाहता था कि कोई भी समाधान संविधान के दायरे में होना चाहिए।
2014 में नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के आने के साथ इस स्थिति को और सख्त कर दिया गया था। दिल्ली ने कश्मीर को एक कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में माना था जिसे बल से निपटना होगा। 2017 में घाटी में असैन्य हत्याओं के एक नए दौर के तुरंत बाद आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच नियमित रूप से गोलीबारी और हुर्रियत नेताओं पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी की कार्रवाई के बीच दिल्ली ने बातचीत की संभावना का दायरा बनाने के लिए घाटी में एक वार्ताकार को भेजा। इस पहल को केंद्र ने शुरू से ही स्पष्ट कर दिया था कि संविधान के तहत सबकुछ होगा। लगभग दो साल बाद बातचीत करने की यह पहल भी ठंडे बस्ते में है।
पिछले दो दशकों के विवादों के रिकॉर्ड के बावजूद फारूक ने सुझाव दिया कि बातचीत ही एकमात्र रास्ता था। आगे फारूक ने कहा कि दिल्ली में बैठी सरकार को पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान की बातचीत की पेशकश पर विचार करना चाहिए ताकि मोदी कश्मीर मुद्दे को सुलझा सके।
दरअसल अगर किसी भी सरकार के पास बातचीत करने के लिए राजनीतिक हथियार है तो वो मोदी 2.0 ही है क्योंकि मोदी को भारी बहुमत प्राप्त है। यह छोटे कदमों के साथ शुरू हो सकता था। कम से कम कुछ राजनीतिक कैदियों को रिहा करना, स्वायत्तता पर बातचीत की अनुमति देना। सालों के कड़वे गतिरोध के बाद सरकार घाटी को संकेत दे सकती थी कि दिल्ली वास्तव में बातचीत में रुचि रखती है। लेकिन केंद्र शांति के लिए रोडमैप खोजता हुआ सेना बल पर पहुंचा है और उसी बल पर अपना दबदबा दिखाना चाहता है।