लालकृष्ण आडवाणी : पिछले 5 सालों में बोले सिर्फ 365 शब्द, गुमनामी में डूबता भाजपा का यह सूरज ?

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8 अगस्त, 2012 को लोकसभा में असम में अवैध घुसपैठ और राज्य में बड़े पैमाने पर हो रही जातीय हिंसा के मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव पेश किया गया जिस पर बहस चल रही थी। विपक्ष की तरफ से बहस को आगे बढ़ाते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लौह पुरुष माने जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी ने बोलना शुरू किया।

उस दिन में आडवाणी का तूफानी अंदाज देखने को मिला। मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार स्थगन प्रस्ताव को हराने पर आमादा थी लेकिन, लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी बात जारी रखी। भारी ड्रामे के बीच आडवाणी ने अपनी बात जारी रखी और जो वह चाहते थे वो कहा।

आडवाणी जैसे अनुभवी राजनेता के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, जिन्होंने दशकों लंबे राजनीतिक करियर में ऐसे कई तूफान खड़े किए। उस दिन लालकृष्ण आडवाणी का भाषण लगभग 5,000 शब्दों का था। अंतत: प्रस्ताव तो पारित नहीं हुआ, लेकिन आडवाणी अपने मन की बात कहे बिना सीट पर नहीं बैठे।

अब सीधे चलते हैं 8 जनवरी, 2019 को, लोकसभा में फिर एक गहमागहमी वाला दिन था। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सदन में सिटिजनशिप बिल (नागरिकता संशोधन विधेयक) पेश किया।

इस विधेयक के संसद द्वारा पारित होने के बाद असम के लोगों के सामाजिक-राजनीतिक जीवन, राज्य में अवैध आवाजाही जैसे मसलों पर इसके दूरगामी परिणाम होंगे। जिस दिन बिल लोकसभा में पेश किया गया, उस पर बहस हुई और पारित हुआ लेकिन एक आवाज उस दिन खामोश थी। लालकृष्ण आडवाणी सदन में मौजूद थे लेकिन वह एक भी शब्द नहीं बोले।

यह वही लालकृष्ण आडवाणी थे, जिन्होंने आठ साल पहले, सैकड़ों व्यवधानों के बावजूद, इसी मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव की मांग की थी।

2008 से 2018 – आठ साल का लंबा समय…चीजें बदली, सरकारें बदली और बदल गया एक आदमी – लाल कृष्ण आडवाणी।

बदले-बदले लाल कृष्ण आडवाणी

लोकसभा की वेबसाइट पर दिए गए रिकॉर्ड का अगर विश्लेषण करें तो पता चलता है कि पिछले पांच सालों में, लाल कृष्ण आडवाणी ने सदन में सिर्फ 365 शब्द ही बोले हैं।

15वीं लोकसभा (2009-2014) के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने लोकसभा में 42 कार्यवाही में हिस्सा लिया और 35,926 शब्द बोले। दूसरी ओर, मौजूदा लोकसभा में आडवाणी ने जो सभी 365 शब्द बोले, इतने उन्होंने 2014 में ही बोल दिए थे। उन्होंने 19 दिसंबर, 2014 से लोकसभा में अपनी बात नहीं रखी।

यदि आप यह सोच रहे हैं कि आडवाणी कम बोलने वाले नेता हैं तो यह गलती होगी। उनकी आत्मकथा, माई कंट्री माय लाइफ, 1,000 पन्नों की मोटी किताब है जिसे देखकर लगता है कि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है।

यदि हम 2014 के बाद से लोकसभा में लालकृष्ण आडवाणी की मौजूदगी का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि 11 बार के सांसद, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संस्थापक सदस्यों में से एक जिन्होने भारत में पार्टी के राजनीतिक आधार को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वो केवल पांच मौकों पर लोकसभा में बोले हैं।

इन पाँच मौकों में से दो लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के चुनाव के दौरान थे। इस दौरान वो बोले “मैं प्रस्ताव का समर्थन करता हूं”। (वहीं 3 जून 2009 को जब लोकसभा अध्यक्ष के रूप में मीरा कुमार को चुना गया था तब अपने भाषण में, आडवाणी ने 440 शब्दों का भाषण दिया था।)

2014 और 2019 के बीच भी जब आडवाणी ने संसद में अपनी बात रखी, तब दो अन्य मौके थे। जब उन्होंने संसदीय समितियों की रिपोर्ट प्रस्तुत की हों या किसी समिति के प्रमुख या सदस्य रहे हों। इन बार भी, उनके पास केवल औपचारिकता से परे कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था। आडवाणी ने जो रिपोर्ट पेश की उसका नाम पढ़ा और कहा, ‘मैं रिपोर्ट सदन के पटल पर प्रस्तुत करता हूं।’

पांचवीं बार लालकृष्ण आडवाणी संसद में पिछले पांच साल में कश्मीर में प्रवासियों के मुद्दे पर बोले। यहां भी, उन्होंने सिर्फ एक संसदीय समिति की एक पुरानी रिपोर्ट का संदर्भ दिया और कहा कि इस रिपोर्ट को फिर से जारी किया जाना चाहिए और इस पर विचार-विमर्श होना चाहिए कि इसकी सिफारिशों को कैसे लागू किया जा सकता है।

लोकसभा में बहस या कार्यवाही के दौरान बिताए गए कुल समय में, लाल कृष्ण आडवाणी ने 365 शब्द बोलते हुए तीन मिनट से भी कम समय बिताया है।

आडवाणी ऐसे क्यों हो गए ?

लाल कृष्ण आडवाणी के सार्वजनिक जीवन से इस तरह विमुख हो जाने के पीछे उनका स्वास्थ्य खराब रहना या बढ़ती उम्र ही कारण नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में लोकसभा में लालकृष्ण आडवाणी की अटेडेंस शानदार रही है। आडवाणी इस दौरान 92 प्रतिशत संसद में उपस्थित रहे हैं।

4 जून, 2014 और 8 जनवरी, 2019 के बीच, लोकसभा के 16 सत्र आयोजित किए, 321 दिनों तक बैठक चली। इनमें से, लालकृष्ण आडवाणी 296 दिन यानि (92.21 प्रतिशत) मौजूद रहे। यह अन्य मंत्रियों की तुलना में कहीं अधिक है।

जब आडवाणी का दौर था

1998 से 2019 के बीच आडवाणी पांच लोक सभाओं (12 वें -16 वें) के सदस्य रहे। वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार (1998-2004) में नंबर 2 पर थे और मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के समय (2004-2014) के दौरान विपक्ष के नेता बने। आज, हालांकि वह सदन में पहली पंक्ति में बैठते हैं पर अब वो जोश कहीं गायब है।

लोकसभा के रिकॉर्ड बताते हैं कि आडवाणी ने 1999 और 2019 के बीच कोई सवाल नहीं पूछा, उन्होंने 45 सरकारी बिलों की चर्चा में भाग लिया लेकिन  इनमें से कोई भी 2014 के बाद नहीं है। सिर्फ संसद में ही नहीं, बल्कि भाजपा के भीतर भी, जिस पार्टी का उन्होंने वाजपेयी के साथ मिलकर गठन किया और अपना सारा जीवन समर्पित किया, वो भी कहीं ना कहीं उनसे दूर हो गई।

सोशल मीडिया के इस दौर में, वह शायद ही कभी किसी ट्वीट्स में मेंशन किए जाते हैं जो भाजपा दिन भर करती रहती है।

भाजपा के ट्विटर हैंडल (@ BJP4India) से 2013 में आडवाणी के नाम का ट्वीट था जब एक साल भाजपा 2014 के लोकसभा चुनावों की तैयारी कर रही थी लेकिन जब चुनाव हुए और केंद्र में एनडीए की सरकार बनी, तो आडवाणी भाजपा के ट्विटर हैंडल से गायब हो गए।

2014 के लोकसभा चुनावों से पहले, आडवाणी एक एक्टिव ब्लॉगर भी थे, जो कई मुद्दों पर लिखते थे। लेकिन आज उनके ब्लॉग पर जाने से पता चलता है कि उनका आखिरी ब्लॉग 24 अप्रैल 2014 को प्रकाशित हुआ था तब से वहां कोई भी शब्द नहीं है।

2014 के लोकसभा चुनावों में, आडवाणी ने जनवरी 2013 और अप्रैल 2014 के बीच 39 ब्लॉग लिखे। उस दौरान वह औसतन हर महीने तीन ब्लॉग लिखते थे।

2014 की गर्मियां

2014 भारतीय जनता पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण साल था। महत्वपूर्ण, क्योंकि यह पहली बार था जब पार्टी केंद्र में बहुमत की सरकार बनाने में सक्षम थी। भाजपा ने 282 सीटें जीतीं। सहयोगी दलों के साथ, भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानि एनडीए का आंकड़ा 336 तक पहुंच गया।

लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी के लिए, 2014 ने उनके राजनीतिक संन्यास (निर्वासन) का संकेत दिया। पहले से ही अपने जीवन के सूर्यास्त में डूबे, आडवाणी को मानो भाजपा कहने लगी कि एक पार्टी, जिसे उन्होंने वाजपेयी के साथ मिलकर बनाया और अपना जीवन समर्पित किया वो अब उनके बीते दिनों की बात है।

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकृष्ण आडवाणी, वाजपेयी और एक अन्य भाजपा दिग्गज मुरली मनोहर जोशी मार्गदर्शक मंडल का हिस्सा बना दिए गए।

2014 में, आडवाणी और जोशी को भाजपा के शीर्ष निर्णय लेने वाले भाजपा संसदीय बोर्ड और इसके केंद्रीय चुनाव समिति से भी हटा दिया गया। ‘भाजपा के तीन धरोहर, अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर’, 1990 के दशक में भाजपा के सबसे लोकप्रिय नारों में से एक अब कहीं सुनाई नहीं दे रहा था।

इस प्रकार, बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेता के लिए, 2014 एक ऐसा साल था, जहां एक तरफ, वह लोकसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज करने और अपनी सरकार बनाने के लिए पार्टी के गवाह थे वहीं दूसरी ओर, जीवन की इस बड़ी जीत का मतलब यह भी था कि उनका राजनीतिक जीवन अब गुमनामी में डूबने जा रहा है।

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