इलेक्शन, बायोपिक, प्रोपेगेंडा…समझदार कौन?

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अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने की कला हर राजनेता में होनी चाहिए, लेकिन लोगों के दिमाग में घुसने की कला यदि सीखना हो तो वर्तमान पीएम नरेंद्र मोदी से सीखी जा सकती है। असल मुद्दों से भटकाते हुए चर्चा को किसी ओर दिशा में ले जाना उन्हें बखूबी आता है, ​इसका ताज़ा उदाहरण ‘मैं भी चौकीदार’ है। चौकीदार का मामला गर्म ही था कि मोदी पर बन रही बायोपिक का ट्रेलर भी लोगों के सामने आ गया है। अब सबका फोकस इस फिल्म पर चला गया है। फिल्म का यह नाटक ट्रेलर से स्टार्ट हुआ है। अभी प्रमोशन होगा, डायलॉग प्रोमो आएंगे, गाने आएंगे, फिल्म आएगी और तब तक चुनाव आ जाएंगे। यानी पूरा टाइम शेड्यूल बहुत अच्छे से फिक्स किया गया है। इन सबके पीछे बहुत सी बातों को दबा दिया जाएगा। मोदी भक्त अपनी जिम्मेदारी मानते हुए फिल्म को हिट कराने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि वे हीरो की तरह मतदाताओं के ज़हन में बस जाएंं…और चुनावी बिसात में अपना रोल निभाएं।

फिल्म की बात करें तो ‘मैरीकॉम’, ‘सरबजीत’ जैसी फिल्में बनाने वाले ओमंग कुमार ने यह प्रोजेक्ट हाथ में क्यो लिया, यह समझ से परे है। निर्देशक के तौर पर क्या वे अपने विज़न को फिल्म में दर्शा पाए हैं? या ​वे भी सिर्फ मोहरा हैं। एक ऐसी कहानी जिसमें निर्देशक को लूप होल्स दिखाने की इजाज़त नहीं थी। बेशक मोदी ने अपने कॅरियर में कई अच्छे काम किए होंगे, लेकिन बायोपिक का असल अर्थ होता है पूरी जर्नी को बिना किसी पूर्वाग्रह के दिखाया जाए, लेकिन ट्रेलर देखकर कोई भी बता सकता है कि हीरो को कितने महिमामंडन के साथ प्रजेंट किया गया है। निर्देशक ने हीरो पर देशभक्ति का रंग चढ़ाकर प्रस्तुत किया है ताकि बिना किसी सवाल जवाब के दर्शक देश के नाम पर खींचे चले आएं।

यहां विवेक ओबरॉय ने यह फिल्म क्यों की या उन्हें इस रोल के लिए क्यों चुना गया, इस पर बात करना बेमानी होगा। वे खुद विश्लेषण करें या उनके चुनिंदा चाहने वाले इस पर मंथन करें तो बेहतर होगा।

असल सवाल यह है कि एक नेता विशेष को चुनाव के पहले अपनी बायोपिक लाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? फिल्म को चुनाव से पहले रिलीज करने के लिए प्रीपॉन ​क्यों किया? फिल्म की कहानी बायस्ड सी क्यों लग रही है? आनन फानन में फिल्म दो महीनों के अंदर क्यों बनाई गई? इन सवालों के जवाब जो भी दिल से देगा, उसे भगवान इनाम देगा।

साफ है कि चुनाव सिर पर हैं, प्रोपेगेंडा जरूरी है, चुनावी प्रचार का यह एक नया तरीका है, बॉलीवुड इसका बहुत अच्छा ज़रिया है, आम मुद्दे दब रहे हैं, परेशानियां ज्यों की त्यों हैं… देखना यह है कि असल में समझदार का टैग किसे मिलता है? कौन पर्दे के पीछे झांक पाता है? नेता आगे निकलेगा या मतदाता?

लोकतंत्र का त्योहार, लोकतंत्र का त्योहार…बोलकर कहीं कोई आपको बेवकूफ ना बना जाए। अपने मताधिकार का बेशक प्रयोग करें, लेकिन समझदारी से किसी खुमारी में नहीं…।

नोट : हम किसी पार्टी का विरोध या सपोर्ट नहीं कर रहे बस, हम असल बातें सामने लाने की नादान सी कोशिश कर रहे हैं।

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