दो पार्टियों की लड़ाई के बीच बंगाल को राजनीतिक हिंसा से कौन बचाएगा?

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बंगाल को राजनीतिक दलों के बीच एक खेल बनाकर रख दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को फिलहाल इससे बहुत फायदा होने वाला है और वहीं तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) अपनी मूर्खता और उतावलेपन के कारण फिर से राज्य को कहीं ना कहीं भाजपा के खेमे में सौंप रही है।

ममता बनर्जी को यह सोचने की जरूरत है कि वह राज्य की मुख्यमंत्री हैं केवल अपनी पार्टी की मुखिया नहीं हैं। मुख्यमंत्री आकर कहती हैं कि हिंसा में मेरी पार्टी के बीजेपी के मुकाबले इतने लोग मारे गए। ऐसा कहना अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है।

जो लोग पीड़ित हैं वे बंगाल के नागरिक हैं और इसलिए उन्हें सुरक्षा की भावना देना मुख्यमंत्री यानि ममता बनर्जी की ही जिम्मेदारी है। मुख्यमंत्री सिर्फ इसलिए नहीं होता कि वे बस अपनी पार्टी के हित में बोलते रहें लेकिन ममता बनर्जी फिलहाल यही कर रही हैं। बनर्जी धीरे धीरे पक्षपात करने लगी हैं और यह बंगाल वासियों के लिए खतरे की घंटी है।

क्या उनको समझ नहीं आ रहा है कि उनकी खुद की पार्टी के लोग भाजपा में चले गए हैं? यह सब स्पष्ट है कि भाजपा बंगाल में हिंसा पैदा करने और उसे बनाए रखने पक्ष में है। पार्टी जानती है कि यह राज्य में सत्ता हासिल करने का एकमात्र तरीका है। भाजपा ने यह मांग की कि मारे गए पार्टी कार्यकर्ताओं को कोलकाता ले जाया जाए और परेड की जाए। लेकिन कहीं ना कहीं ये 2011 की ही बात है जब टीएमसी इसी चीज को कर रही थी और सत्ता में थी वामपंथ सरकार।

बनर्जी को केवल पार्टी के नेता होने से ऊपर उठना चाहिए और लोगों के नेता की तरह काम करना शुरू करना चाहिए। कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक मृतक मरीज के रिश्तेदारों और दोस्तों द्वारा एक डॉक्टर पर किए गए हमले के बारे में मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया बेहद ही खतरनाक है। ममता बनर्जी का जो रवैया रहा है उससे डॉक्टरों के भीतर गुस्सा बढ़ा है।

ममता बनर्जी की गिनती फिलहाल उन नेताओं में हो रही है जो एक मूर्ति टूटने पर वहां तत्काल पहुंच जाती हैं लेकिन जब इंसानों पर खतरा मंडरा रहा है तो अपने ऑफिस में ही बैठी रहती हैं।

इस पूरे घटनाक्रम को अब एक सांप्रदायिक रूप दिया जा रहा है। डॉक्टर हिन्दू और हमलावर मुस्लिम हैं जिसके चलते बीजेपी ने भी अपना रूख साफ कर दिया है। बीजेपी के नेताओं ने एक मिनट का वक्त नहीं लिया ये कहने के लिए कि ममता बनर्जी मुस्लिमों का बचाव कर रही हैं।

आंदोलनकारी डॉक्टरों के प्रति ममता बनर्जी की रवैया भाजपा के इन आरोपों को हवा दे रहा है और इसी वजह से सांप्रदायिक माहौल तैयार हो रहा है जिसे रोकने में राज्य सरकार बुरी तरह विफल नजर आ रही है।

कोलकाता में क्या हुआ वो सभी जानते हैं। एक मरीज की मौत हो गई। डॉक्टरों को मरे हुए आदमी के रिश्तेदारों के गुस्से का सामना करना पड़ा। नाराज डॉक्टरों ने काम का बहिष्कार किया और हड़ताल पर चले गए। लेकिन क्या हमने कभी सुना है कि हमला धार्मिक पहचान के कारण हुआ हो? ऐसे लगभग सभी मामलों में डॉक्टरों की मांग होती है कि हिंसा करने वालों पर कार्यवाही हो और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित हो।

भाजपा इस मामले को भी हिन्दू-मुस्लिम एंगल देने की कोशिश करती है लेकिन क्या हमें एक मेडिकल मुद्दे को सांप्रदायिक मुद्दा बनने देना चाहिए?

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने राज्य में हाल की हिंसा का जवाब देते हुए दावा किया कि “विशेष समुदाय’ के 47% लोग-सामाजिक-विरोधी हैं। उन्होंने कहा कि बीजेपी पर हमला करने के लिए उस विशिष्ट समुदाय को एकजुट किया जा रहा है। इस समुदाय के लोग जानते हैं कि उन्हें (बंगाल में) छुआ नहीं जाएगा। वे पुलिस सुरक्षा के तहत कुछ भी गलत कर सकते हैं। उन्हें कभी सजा नहीं हुई।

घोष पहले इस बारे में अधिक स्पष्ट थे और सार्वजनिक रूप से उन्होंने बताया भी था कि ये लोग कौन हैं। 2017 के इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जहां कहीं भी मुस्लिम प्रमुख हैं, परेशानी और अशांति बढ़ी है।

भाजपा जो कर रही है वह आश्चर्यजनक नहीं है लेकिन बाकी लोग क्या कर रहे हैं? क्या राजनीतिक वर्ग का लोगों के पास जाने और हिंसा के खिलाफ बोलने का समय नहीं है? या वे भी यही मानते हैं कि हिंसा बंगाल की राजनीतिक संस्कृति में है और इसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता है?

प्रकाश करात से जब उनकी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) की हिंसा के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने यह कहते हुए असहायता व्यक्त की कि यह राज्य की राजनीतिक संस्कृति है। टीएमसी अपने प्रतिद्वंद्वियों से निपटने के लिए हिंसा का इस्तेमाल कर रही है। और उसी का इस्तेमाल फिलहाल बीजेपी भी कर रही है।

“हिंसा” हिंसा को भूल जाती है। एक हिंसा दूसरी हिंसा को सही ठहराने का आधार बन जाती है। हम जानते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा विशेष रूप से हानिकारक है क्योंकि यह समाज में एक स्थायी विभाजन पैदा करती है, और एक विशेष समुदाय के सदस्यों को दूसरे की आँखों में संदिग्ध बनाती है।

जब टीएमसी ने लेफ्ट को हटाकर सत्ता संभाली तो उसने सीपीआई (एम) के पार्टी कार्यालयों पर हमला करना और जलाना शुरू कर दिया।

यह कहना और मानना कि आप हिंसा के बिना बंगाल में राजनीति नहीं कर सकते, अपने लोगों का अपमान है। क्या राहुल गांधी, जो प्रेम की शक्ति के बारे में बात करते रहते हैं, सीताराम येचुरी और ममता बनर्जी, जो बंगाल में दूसरा पुनर्जागरण चाहते हैं, इस हिंसा पर उठकर लोगों और राज्य को शांति की ओर ले जाएंगे? क्या बाकी सभ्य समाज कवि, लेखक, पत्रकार, अभिनेता, सिनेमा के लोग, छात्र और शिक्षक आगे आएंगे और बंगाल में शांति की अपील करेंगे?

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