अरबिंदो घोष: क्रांतिकारी जिसने बाद में अध्यात्म की राह अपना ली

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भारतीय राष्ट्रवादी, दार्शनिक, गुरु और कवि श्री अरबिंदो घोष की 5 दिसंबर को 69वीं डेथ एनिवर्सरी हैं। उन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। अरबिंदो ने मानव की प्रगति और आध्यात्मिक विकास पर अपने विचार लिखे थे। उन्होंने इंडियन सिविल सेवा में उत्तीर्ण की, लेकिन बाद में राष्ट्रवादी विचारधारा और बंगाल के आरंभिक क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल होकर देश की आजादी में शामिल हो गए। इस दौरान वे जेल भी गए।

जीवन परिचय

अरबिंदो घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को बंगाल प्रेसीडेंसी के कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता का नाम कृष्ण धन घोष था, जो बंगाल के रंगपुर में असिसेंट सर्जन थे। उनकी माता का नाम स्वर्णलता देवी था। अरबिंदो के दो बड़े भाई बेनॉयभूषण और मनमोहन, एक छोटी बहन सरोजिनी और एक छोटा भाई बरिंदरकुमार था।

हालांकि उनका परिवार बंगाली था, लेकिन उनके पिता पर पश्चिमी संस्कृति हावी थी। इसलिए अरबिंदो और उनके दो बड़े भाई—बहनों को दार्जिलिंग के अंग्रेजी माध्यम स्कूल लोरेटो हाउस बोर्डिंग में पढ़ने के लिए भेजा। भारत में दार्जिलिंग ब्रिटिश जीवन शैली का केंद्र था। इस स्कूल का संचालन आयरिश ननों द्वारा किया जाता था। इसमें पढ़ने वालों को ईसाई धर्म की शिक्षा पढ़ाई जाती थी।

उनके पिता उन्हें आईसीएस बनाना चाहते थे। जब अरबिंदो सात साल के थे तब उनके पिता परिवार सहित इंग्लैंड जा बसे। उनकी आगे की पढ़ाई वहीं हुई। उन्हें लंदन स्थित सेंट पॉल स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की, साथ ही वह सर्वोच्च स्थान पर आए और अवॉर्ड से नवाजे गए।

उन्होंने इस दौरान कई विदेशी भाषाओं ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, इतालवी और स्पेनिश भाषाएं भी सीख ली। उन्होंने वर्ष 1890 में 18 वर्ष की उम्र में आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की। परंतु उन्होंने भारत में ब्रिटिश हुकूमत के लिए काम नहीं करने का फैसला किया। इस वजह से वह घुड़सवारी के दौरान असफल हो गया। बल्कि उन्होंने वर्ष 1893 में बड़ौदा रियासत में नौकरी करना ज़्यादा उचित समझा। अरबिंदो ने बड़ौदा रियासत में तेरह साल तक नौकरी की। वह बड़ौदा राज्य कॉलेज के प्रमुख के पद तक पहुंचे। उन्होंने बंगाली और संस्कृत भाषा सीखी। उन्होंने वर्ष 1901 में मृणालिनी बसु से शादी कर ली। दिसंबर, 1918 में इन्फ्लूएंजा महामारी में उनकी पत्नी मृत्यु हो गई।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना

अरबिंदो नौकरी के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय होने लगे। उनके जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का था। उन्होंने कांग्रेस के कई अधिवेशनों अहमदाबाद अधिवेशन (1902), मुंबई अधिवेशन (1904), बनारस अधिवेशन (1905), कलकत्ता अधिवेशन (1906) और सूरत अधिवेशन (1907) में भाग लिया। कलकत्ता अधिवेशन में स्वराज का प्रस्ताव पारित करनाने में उनका बड़ा योगदान था।

वह वर्ष 1902 में कलकत्ता के क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति संपर्क में आए। उनके सहयोगियों में बाघा जतिन (जतिन मुखर्जी) और सुरेंद्र नाथ टैगोर थे। वर्ष 1905 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बंगाल का विभाजन करने की घोषणा ने अ​रबिंदो के मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश पैदा कर दिया।

अलीपुर बम कांड में गिरफ्तार

बंगाल विभाजन ने पूरे देश में अंग्रेजोंं के खिलाफ विरोध होने लगा। इसमें अरबिंदो भी शामिल थे। वर्ष 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया। हालांकि उनका निशाना चूक गया और धमाके में दो ब्रिटिश महिलाओं की मौत हो गई।

अरबिंदो ने इस हमले की योजना बनाने और उसको अंजाम तक पहुंचाने में सहयोग देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और अलीपुर जेल में डाल दिया गया। बाद में पर्याप्त सबूत नहीं होने के कारण उन्हें 6 मई 1909 को बरी कर दिया गया। उनका मुकदमा स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध वकील चितरंजन दास ने लड़ा था।

अध्यात्म की राह पर

वर्ष 1910 में जेल से रिहा होने के बाद अरबिंदो ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और आध्यात्मिक राह पर चले पड़े। उनके लेख ‘टू माई कंट्रीमेन’ (मेरे देशवासियों के लिए) के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ गिरफ्तार का वारंट जारी कर दिया था। इससे बचने के लिए वह पुद्दुचेरी चले गये। पुद्दुचेरी उस समय फ्रांस के अधिकार में था, जहां ब्रिटिश हुकूमत नहीं चलती थी। अरविंद अगले 40 साल तक पुद्दुचेरी में ही रहे।

यहीं पर उन्होंने यौगिक साधना और ध्यान किया और आध्यात्मिक विषयों पर कई लेख और पुस्तकें लिखीं। द लाइफ डिवाइन, द सिंथेसिस ऑफ योग, एसेज ऑन गीता द सीक्रेट ऑफ द वेद, हिम्स टू द मिस्टिक फायर, द उपनिषद्, द रेनेसां इन इण्डिया, वार एण्ड सेल्फ-डिटरमिनेशन, द ह्यूमन साइकिल, द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी और द फ्यूचर पोएट्री उनकी प्रमुख किताबें हैं। उन्होंने अपने वन्देमातरम्, कर्मयोगी, धर्म और आर्य जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया।

वर्ष 1926 में उन्होंने अरबिंदो आश्रम की स्थापना की। उन्हें वर्ष 1943 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए और 1950 में शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया। हालांकि दोनों ही बार उन्हें यह सम्मान नहीं मिला।

निधन

श्री अ​रबिंदो का 5 दिसंबर, 1950 को निधन हो गया।

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