अक्सर अपने विवादस्पद बयान और लेखों के लिए चर्चा में रहने वाली अंग्रेजी लेखिका अरुंधति रॉय आज अपना 61वां जन्मदिन मना रही हैं। उनका का जन्म 24 नवंबर, 1961 को मेघालय राज्य के शिलांग शहर में हुआ था। अरुंधति का पूरा नाम सुजाना अरुंधति रॉय है। उनके पिता का नाम राजीब रॉय तथा उनकी माता का नाम मैरी रॉय था। उनके पिता राजीब रॉय शिलांग में चाय बागान के मैनेजर हुआ करते थे। उनकी मां मैरी एक मलयाली सीरियाई ईसाई महिला थीं, जो केरल में महिला अधिकार कार्यकर्ता हुआ करती थीं।
जब अरुंधति रॉय दो साल की थी उनके माता-पिता का तलाक़ हो गया था, जिसके बाद वे अपनी मां और भाई के साथ वापस केरल लौट आईं। कुछ समय बाद उनकी मां ने केरल में अपना एक स्कूल शुरु कर दिया था। इस खास मौके पर जानिए विवादित लेखिका अरुंधति रॉय के जीवन के बारे में कुछ रोचक बातें…
प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर स्कूल से की पढ़ाई
अरुंधति रॉय की प्रारंभिक शिक्षा कोट्टयम के कॉर्पस क्रिस्टी स्कूल में हुई थी। इसके बाद उन्होंने तमिलनाडु के नीलगिरी में लॉरेंस स्कूल, लवडेल से स्कूली पढ़ाई पूरी की। अरुंधति ने कॉलेज की पढ़ाई दिल्ली के प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर स्कूल से वास्तुकला में की थी। इस दौरान वे आर्किटेक्ट गेरार्ड दा कुन्हा से मिलीं। इन दोनों की दोस्ती प्यार में बदली और शादी कर ली। यह शादी करीब चार साल चलीं। ये दोनों अलग होने से पहले दिल्ली और बाद में गोवा में साथ रहे थे। अरुंधति ने कुछ फिल्मों में काम किया और दो फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखीं। उन्होंने फिल्म ‘मैसी साहब’ में एक गांव की लड़की का रोल प्ले किया था।
पहले नोवेल से रातों-रात बन गई थीं सेलिब्रिटी
साल 1996 में अरुंधति रॉय का पहला नोवेल ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ पब्लिश हुआ, जिसने उन्हें रातों-रात एक सेलिब्रिटी बना दिया। वर्ष 1997 में उनके इस नोवेल के लिए ‘मैन बुकर पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। अरुंधति यह अवॉर्ड पाने वाली प्रथम भारतीय महिला हैं। इस नोवेल की कहानी को प्रवाह और भाषा के जादू के लिए आज भी दुनिया के जाने-माने उपन्यासों में शामिल किया जाता है। अगर अरुंधति वैसा ही लेखन आगे करती तो शायद आज वे लाखों भारतीयों की फेवरेट राइटर होतीं। लेकिन बुकर पुरस्कार मिलने के एक साल बाद ही उन्होंने एक ऐसा लेख लिख दिया, जिसके बाद लोगों को उनके बारे में अपनी धारणा बदलनी पड़ी। यहीं से अरुंधति रॉय तिरंगे और देश की संप्रभुता को ललकारने वाली लेखिका बन गईं।
संसद पर हुए हमले की सच्चाई पर ही सवाल उठा दिए
अरुंधति रॉय ने अपने एक लेख ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशन’ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के पोखरण परमाणु परीक्षण की कड़ी आलोचना की थी। इस लेख के बाद उन्होंने साल 2002 में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के समर्थन में एक लंबा लेख ‘द ग्रेटर कॉमन गुड’ लिखा था। इस लेख के लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई। अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा तब बढ़ गया, जब उन्होंने साल 2001 में संसद पर हुए हमले की सच्चाई पर ही सवाल उठा दिए थे। उन्होंने मोहम्मद अफज़ल गुरु के बचाव में लेख लिखा और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी पर सवाल उठाए। इसके बाद वर्ष 2002 में गुजरात के दंगों पर उन्होंने काफ़ी विवादास्पद टिप्पणी की।
वर्ष 2006 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया
वर्ष 2009 में बस्तर में शुरू किए गए ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ पर कमेंट करने की वजह से भी अरुंधति रॉय चर्चा में रहीं। उस वक़्त के गृहमंत्री पी. चिदंबरम को उन्होंने बस्तर में चल रही जंग का सीईओ तक कह दिया था। वर्ष 2010 में उन्होंने ‘वॉकिंग विद द कॉमरेड्स’ नोवेल लिखा, जिसमें बस्तर के माओवादियों के साथ बिताए वक़्त का जिक्र किया।
वर्ष 2002 में अरुंधति रॉय को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अदालत का तिरस्कार करने का दोषी पाया गया था और साथ ही उन पर 2000 रुपये का जुर्माना लगाया गया और एक दिन की जेल की सज़ा भी सुनाई थी। अरुंधति को साल वर्ष 2006 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। साल 2014 में उन्हें टाइम ने विश्व के 100 प्रभावशाली लोगों में शामिल किया था।
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