केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस हफ्ते संसद में भारतीय इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की। राष्ट्रीय जांच एजेंसी जो मुख्य रूप से आतंकी मामलों की जांच करता है उसी के संचालन को नियंत्रित करने वाले कानून में संशोधन के बारे में बहस चल रही थी। उसी दौरान अमित शाह ने दो कानूनों पर चर्चा की जिन्हें हटा दिया गया है: आतंकवाद निरोधक अधिनियम (POTA) और आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि अधिनियम(TADA).
अमित शाह ने कहा “टाडा निरस्त कर दिया गया था। पोटा निरस्त किया गया। दुरुपयोग के कारण उन्हें निरस्त नहीं किया गया। पोटा कानून का दुरुपयोग एक बार भी नहीं किया गया। उन्हें वोट बैंक बचाने के लिए निरस्त किया गया था। पोटा को यूपीए ने वोट बैंक के लिए निरस्त कर दिया था और मैं प्रार्थना करता हूं कि इस सदन का इस्तेमाल राजनीति के लिए न किया जाए।“ आपको बता दें कि पोटा एक्ट 2004 में निरस्त कर दिया गया था उस वक्त यूपीए की सरकार थी।
लेकिन अमित शाह ने अपनी ही पार्टी के कई तथ्यों को गलत सामने रखा। राज्यों द्वारा पोटा के दुरुपयोग के बारे में इतना बवाल हुआ था कि खुद भारतीय जनता पार्टी ने यह सुनिश्चित करने के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया कि इस कानून का दुरुपयोग नहीं हो रहा है।
पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि पोटा का कोई दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। 2003 में आडवाणी का यह बयान तब सामने आया था जब दो मुख्यमंत्रियों ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इस कानून को इस्तेमाल किया।
गृह मंत्री अमित शाह तर्क दे रहे थे कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने उन मुसलमानों को डिफेंड करने की कोशिश की जिन्हें पोटा कानून के तहत टारगेट किया गया था। विस्तार से समझें तो अमित शाह सुझाव दे रहा था कि अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए बोलना आतंक की रक्षा के समान था।
यह न केवल गलत है, बल्कि परेशान करने वाला भी है। पोटा एक गहरा समस्याग्रस्त कानून था। न्यूयॉर्क में 11 सितंबर के हमलों और नई दिल्ली में संसद पर दिसंबर 2011 के हमले के तुरंत बाद इसे पारित किया गया था और दुनिया भर में आतंक से लड़ने की आड़ और ट्रेंड में यह कानून बन चुका था।
इसने सरकारी एजेंसियों को लगभग किसी को भी एक आतंकी मामले से जोड़ने, उन्हें हिरासत में लेने, नागरिक स्वतंत्रता पर उल्लंघन करने और बिना किसी पारदर्शिता के साथ कानूनी कार्यवाही करने की शक्ति दे डाली। मानवाधिकार हितों की बात करें तो इस कानून का निष्कासन एक सकारात्मक घटना थी।
आतंकी कानून
लेकिन अमित शाह इस बारे में बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं। इसके बजाय, वह उस कल्पना को दोहराना चाहते हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने पोटा को निरस्त करने का फैसला “वोट बैंक” की रक्षा के लिए किया था। यह कथन इस विचार को साबित करता है कि अल्पसंख्यकों के लिए बोलना किसी तरह से आतंक के बचाव के बराबर है। लेकिन अमित शाह ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि इस तरह के कानून कैसे मानवाधिकारों का हनन भी कर सकते हैं।
भीमा कोरेगांव मामले में यह स्पष्ट हो गया था कि शाह की अपनी सरकार ने इन कानूनों और अन्य कानूनों जैसे सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम का उपयोग संदेहास्पद तरीके से किया है।
सत्ताधारी ताकतों ने हमेशा विशेष समुदायों को टारगेट करने और मानवाधिकारों को रौंदने के लिए अपराध की रोकथाम का उपयोग किया है। जो भी उनसे असहमत होता है उसे दुश्मन माना जाता है। अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने इस प्लेबुक को बारीकी से फॉलो किया है।