विधानसभा चुनावों के बाद क्या चल रहा है मध्यप्रदेश की पक्ष विपक्ष की लड़ाई में?

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लोकसभा चुनावों से पहले चुनाव लड़ने वाले पांच राज्यों में सबसे बड़ी टक्कर मध्य प्रदेश में देखी गई जिसने बहुत पुराना इतिहास को तोड़ा। 230 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा से केवल पांच सीटें अधिक जीतने के बाद कांग्रेस फिलहाल ज्यादा सतर्क है। उसने 114 सीटें जीतीं लेकिन उसका वोट शेयर भाजपा की तुलना में थोड़ा सा कम था। 15 साल में पहली बार कांग्रेस लोकसभा चुनाव राज्य में खुद की सरकार के साथ लड़ने जा रही है।

भाजपा विपक्ष की भूमिका में कैसे फिट हुई है?

कई भाजपा नेताओं को बहुत कम मार्जन से हार मिली और 15 साल बाद विपक्ष में बैठना बीजेपी के लिए थोड़ा अलग है। 13 साल तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान अब विपक्ष में हैं। हालांकि दिग्गज नेता गोपाल भार्गव को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया था लेकिन ग्राउंट लेवल पर चौहान ही विपक्ष का चेहरा हैं। वे फिलहाल एक अलग रणनीति पर चल रहे हैं।

अपराधों के शिकार लोगों से शिवराज सिंह खुद मिल रहे हैं। शिवराज किसानों का सहारा लेने की होड़ में हैं। जब कांग्रेस सरकार ने राज्य सचिवालय में हर महीने वंदे मातरम का पाठ नहीं किया तो भाजपा ने कांग्रेस की देशभक्ति पर सवाल उठाया और विरोध प्रदर्शन की घोषणा की जिससे मजबूर होकर कांग्रेस को इस कार्यक्रम को करना ही पड़ा।

17 दिसंबर को शपथ लेने के पहले कुछ घंटों के भीतर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने किसान कर्ज माफी से संबंधित फाइल को मंजूरी दे दी। इसी के साथ सस्ती जमीन और बिजली जैसे उद्योगों में 70% नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित होंगी। 29 विधायकों को कैबिनेट मंत्री बनाकर उनके मंत्रालय का विस्तार किया गया, जिसमें एक स्वतंत्र विधायक भी शामिल था।

चार निर्दलीय, बसपा के दो विधायक और एक समाजवादी पार्टी के सदस्यों ने सरकार को अपना समर्थन दिया है। अगली चुनौती अपने बहुमत को साबित करने की थी। भाजपा द्वारा बहिष्कार के बीच कांग्रेस ने अपनी संख्या साबित की। सीएम पर अभी भी कैबिनेट में कुछ पदों को भरने के लिए दबाव है।

मध्यप्रदेश के हालिया चुनावी इतिहास में, विधानसभा और लोकसभा चुनावों में लोगों ने कितने अलग-अलग तरीके से मतदान किया है?

अगर पिछले तीन चुनावों की बात करें तो लोकसभा और विधानसभा में लोगों का रूझान मिक्स ही रहा।  2004 और 2014 में विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा के प्रदर्शन में सुधार हुआ। भले ही चुनावों के समय अलग-अलग लोगों ने केंद्र पर शासन किया हो। 2009 में, भाजपा 25 सीटों से 16 सीटों पर सिमट गई थी भले ही विधानसभा चुनावों में उसका वोट शेयर बढ़ गया था। नरेन्द्र मोदी को भाजपा का चेहरा प्रोजेक्ट करने के बाद भाजपा विधानसभा में 143 से 165 और लोकसभा में 16 से 27 की ओर रही।

दोनों पार्टियों की संगठनात्मक मजबूती कैसी हैं?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उपस्थिति के कारण भाजपा ने अपनी संगठनात्मक मजबूती को बनाए रखा है, जबकि कांग्रेस के संगठन में सुधार दिखाई दे रहा है। कुछ जिला इकाइयाँ जो लगभग ख़राब हो चुकी थीं अब वहां कांग्रेस ने काम किया है। भोपाल में राज्य कांग्रेस मुख्यालय फिलहाल काफी एक्टिव है। एक तरह से विभाजित घर होने के बावजूद कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों को मजबूती से लड़ा।

क्या कांग्रेस ने अपने सॉफ्ट हिंदुत्व को जारी रखा है जो कि चुनाव अभियान में दिखाई दिया था?

चुनावों में जो कुछ भी घोषणा कांग्रेस द्वारा की गई थी वो उसने पूरी करनी शुरू कर दी है ताकि बीजेपी द्वारा जो एंटी हिन्दू और प्रो माइनोरिटी का टैग लगाया जा रहा है उसकी कोई गुंजाइश ही ना बचे। सरकार ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया है कि गाय के नाम पर वोट मांगने के बावजूद भाजपा ने राज्य में एक भी गौ शाला नहीं खोली थी।

नई सरकार चार महीनों में 1,000 गौ शाला खोलने की अपनी योजना के साथ सामने आई है। कांग्रेस की इस पहल ने जैन संतों को काफी खुश किया है। आध्यात्मिक विभाग स्थापित करने से लेकर मंदिर के पुजारियों के वेतन में वृद्धि तक, नई सरकार ने अपनी गति को कम नहीं किया है।

क्या दोनों दलों के भीतर ही लड़ाई की संभवाना है?

कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया था कि या तो कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनेंगे। एक बार जब नाथ को सीएम बनाया गया था तब सिंधिया खेमे ने कोई उपद्रव नहीं किया था। पार्टी ने उत्तर प्रदेश में सिंधिया को बड़ी जिम्मेदारी दी है।

भाजपा में, एक तबके ने 2014 के चुनावों से पहले मोदी को एक काउंटर के रूप में मुख्यमंत्री चौहान को प्रोजेक्ट किया था। 2018 के चुनावों में हारने के बाद, चौहान ने खुद ही हार की जिम्मेदारी ली। इसके अलावा वे अभी भी मोदी की तारीफ करते ही नजर आते हैं। खाली एक हैं रघुनंदन शर्मा जिनका कहना है कि शिवराज की हार के पीछे का कारण उनकी आरक्षण को लेकर की गई टिप्पणी थी। इसके अलावा किसी अन्य नेता ने उन्हें खुली चुनौती नहीं दी।

क्या अभी के सांसदों का ही टिकट कट सकता है?

कांग्रेस के केवल तीन सदस्य हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ को अपने पद पर बने रहने के लिए एक उपचुनाव में विधानसभा सीट जीतनी होगी। उनका बेटा छिंदवाड़ा लोकसभा सीट का प्रबल दावेदार है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के लोकसभा चुनाव लड़ने पर फिलहाल सवाल खड़े हैं क्योंकि उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया तीसरे कांग्रेस सांसद हैं।

दूसरी ओर, भाजपा कुछ लोगों के टिकट काट सकती है। पार्टी को ऐसा लगता है कि इन सीटों पर मौजूदा सांसद जीत नहीं पाएंगे। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 53 विधायकों को टिकट देने से इनकार कर दिया था।

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