भाजपा की इस बड़ी जीत से जुड़े हर सवाल का जवाब!

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लोकसभा चुनाव खत्म हुए और अब नजीजे भी सभी के सामने हैं। भारतीय जनता पार्टी ने क्यों 2014 से भी बेहतर प्रदर्शन किया? क्यों कांग्रेस मोदी सरकार का सामना कर सकी? भाजपा की इस बड़ी जीत में मतदाताओं के लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है। क्यों जनता ने मोदी सरकार को दुबारा सत्ता के लिए चुना है। ये कुछ एक सवाल हैं जिसके जवाब सभी खोज रहे हैं।

2014 और 2019 के नतीजों में क्या एक जैसा है और क्या अलग?

भाजपा ने 2014 की तुलना में इस बार 21 सीटें ज्यादा जीती हैं। दक्षिणी और उत्तर भारत की अगर बात करें तो नतीजे 2014 जैसे ही हैं। बहरहाल देश के कुछ हिस्सों में बीजेपी ने बढ़त हासिल की है साथ ही पिछली बार से बीजेपी के वोटशेयर में भी बढ़ोतरी देखने को मिली।

नए क्षेत्रों में लाभ के साथ भाजपा के वोटशेयर राष्ट्रीय स्तर पर 31% से लगभग 37.5% तक बढ़ गए हैं। इस चुनाव में मिले 60.37 करोड़ वोटों में से 22.6 करोड़ से ज्यादा भाजपा के पास गए।

2014 की तरह ही भाजपा की आश्चर्यजनक जीत नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द घूमती है। पार्टी का मानना ​​है कि भाजपा के लिए प्रत्येक वोट “मोदी के खाते” में जा रहा था। राष्ट्रपति-शैली के चुनाव लड़ने की रणनीति के तौर पर भाजपा सामने आई।

यूपी में भाजपा ने 2014 के अपने प्रदर्शन को दोहराया है। सपा, बसपा और आरएलडी के गतबंधन के बावजूद, पिछली बार की 71 सीटों में से केवल 9 सीटें ही कम हो सकीं। लेकिन नए क्षेत्रों में भाजपा ने इसे न केवल कवर किया बल्कि ज्यादा सीटें बटोंरी। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में लगभग 50% वोट हासिल किए, वहीं 2014 में ये 43 प्रतिशत था।

भाजपा अब पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अब एंट्री कर चुकी है। बंगाल में उसने 40% से अधिक लोकप्रिय वोट और 18 सीटों पर जीत हासिल की। 2014 की बात करें तो भाजपा को सिर्फ में उसे दो सीटें मिलीं। ओडिशा में उसे 38% वोट मिले और आठ सीटें वहीं 2014 में ये आंकड़े 22% वोट और एक सीट तक ही सीमित था। तेलंगाना में भाजपा ने चार सीटों का छोटा लेकिन महत्वपूर्ण लाभ कमाया।

किस बात पर मोदी को वोट दिए गए?

एक स्पष्ट संदेश यही है कि जिन मतदाताओं ने मोदी को एक दूसरा कार्यकाल सौंपा है उनका तर्क यही  रहता है पिछले 60 वर्षों के नुकसान और गंदगी को कम करना है और इस प्रक्रिया में समय लगता है।

पूरे पांच साल के कार्यकाल के बाद बढ़े हुए बहुमत के साथ वापसी करने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधान मंत्री बनकर मोदी ने यह स्थापित किया है कि उनका जादू अभी खत्म नहीं हुआ। जनता का यह फैसला साफ तौर पर दिखाता है कि लोगों ने बीजेपी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पूरी तरह से अपनाया है और साथ ही वोटों को निर्धारित करने में राष्ट्रीय गौरव के महत्व को भी स्थापित किया है।

इसके विपरीत यह फैसला “वंशवाद की राजनीति” की नकारता हुआ नजर आता है जिस मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद जोर दे रहे हैं। इस फैसले से कहीं ना कहीं यह भी पता चलता है कि देश के आर्थिक कारक कहीं ना कहीं चुनावों में इतने अहम नजर नहीं आते। आर्थिक कारकों से लोगों में वो विरोध नहीं पनपता।

कई लोगों कहते आए हैं कि यह चुनाव एक “सामान्य” चुनाव था जिसमें किसी भी तरह की और किसी भी एक व्यक्ति की कोई लहर नहीं चल रही है। वे सभी गलत साबित हुए हैं। यह अपने आप में एक ऐसा चुनाव था जिसमें लड़ तो सभी रहे थे लेकिन भाजपा की ओर से सिर्फ एक ही उम्मीदवार था और वो है नरेन्द्र मोदी।

नतीजे ग्रामीण और शहरी वोटों के बारे में क्या कहते हैं?

भाजपा की इतनी बड़ी जीत को देखते हुए ऐसा लगता है कि कि दोनों गांवों और कस्बों ने एक जैसे मतदान किया है। शायद व्यक्तिगत सीटों में जीत के मार्जिन ही एक अंतर रहा। लगता है कि भाजपा का मूल संदेश फिर शहर हो या ग्रामीण हर जगह ज्यादातर समान उत्साह के साथ स्वीकार किया गया है। बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद बने राष्ट्रवादी माहौल ने ग्रामीण आर्थिक संकट के दर्द को नजरअंदाज करने और चुनावी माहौल को एक तरह से समतल करने का काम किया।

हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ जाति और पहचान का क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर प्रदेश में लड़ाई गठबंधन के जाति समीकरण और मोदी की अपील के बीच थी। नतीजों से पता चलता है कि समीकरणों के साथ साथ एक अपील की भी जरूरत पड़ती है।

यूपी और बिहार के नतीजे संकेत देते हैं कि मंडल की राजनीति अपनी सीमा तक पहुंच सकती है। सपा यूपी में केवल पांच सीटें जीती (जहाँ अजित सिंह और जयंत चौधरी के पिता-पुत्र आरएलडी युगल भी हार गए हैं), कर्नाटक में जेडी (एस) सिर्फ एक और आरजेडी पूरे बिहार में एक भी सीट नहीं जीत पाई। यह बताता है कि मंडल दलों के कोर सपोर्ट बेस भी इधर उधर हो चुके हैं।

इसके अलावा, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में भाजपा की सफलताओं ने जाटों, पाटीदारों और मराठों की राजनीति की सीमाओं का हमें पता चला है जिन्होंने पिछले कई वर्षों में भाजपा सरकारों के खिलाफ बड़े आंदोलन किए हैं।

कृषि संकट और रोजगार जैसे बड़े मुद्दों ने नतीजों पर क्या प्रभाव डाला?

इतने बड़े जनादेश से पता चलता है कि इन दोनों ही मुद्दों ने चुनाव में कुछ भी खास प्रभाव नहीं डाला है जबकि दोनों ही जरूरी और मूलभूल चीजें हैं और सबसे बड़ी चिंताओं में से एक हैं। कहा जा सकता है कि कई मतदाता, नौकरियों की कमी से आहत होने के बावजूद मोदी की छवि पर इतना विश्वास करते हैं वे अंत में बेरोजगारी की समस्या को हल करेंगे। विदर्भ में बड़े कृषि संकट के बावजूद भाजपा-शिवसेना ने वहां चुनाव जीते हैं। कृषि संकट कई वर्षों में अपनी सबसे खराब स्थिति में रहा। मुद्रास्फीति शायद इतनी कम रही कि किसानों को कृषि संकट का आभास नहीं हुआ। अभियान के बाद के चरणों में राहुल गांधी ने राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार को ही सब जगह उठाया और कृषि और रोजगार जैसे मुद्दों पर सत्ता को नहीं घेरा।

2014 में 44 सीटों से 2019 में 52 तक क्या यह राहुल गांधी की व्यक्तिगत हार है?

पांच साल के बाद बमुश्किल 8 सीटें अधिक जुटाना पार्टी और उसके अध्यक्ष के लिए एक करारी हार है। इस पर बहस छिड़ चुकी है और राहुल को सवालों का सामना करना पड़ेगा। वह न केवल पार्टी के अभियान का चेहरा थे बल्कि पूरे अभियान को खुद राहुल गांधी ने अपने और मोदी के बीच बनाया।

“चौकीदार चोर है” जैसे नारे खुद को पार्टी से ऊपर रखने वाले थे लेकिन जैसा कि देखा गया जमीन पर ये काम नहीं कर सके। कई लोगों ने उनके “गब्बर सिंह टैक्स” टिप्पणी पर भी आपत्ति जताई। राफेल के बारे में राहुल गांधी बोलते तो रहे लेकिन वे जनता तक इसे डिलीवर नहीं कर सके। अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि संसद में प्रधानमंत्री को गले लगाना एक मजाक था। वायनाड से चुनाव लड़ने का उनका फैसला और इस बात पर बहस करना कि वाराणसी से प्रियंका को टिकट देना है या नहीं से लोगों में विश्वास की कमी हुई।

अमेठी के पारिवारिक गढ़ में उनकी हार सबसे चुभने वाला कांटा है। उस सीट के साथ-साथ राष्ट्रीय संदर्भ में भी। 1967 के बाद 13 चुनावों में अमेठी 11 बार कांग्रेस ने जीती थी जिसमें गांधी परिवार के सदस्यों द्वारा नौ बार (राहुल ने इसे पिछली बार तीन बार जीता था) और दो अन्य मौकों पर परिवार के वफादार सतीश शर्मा ने इसे जीता था। राहुल ने 2017 में ही पार्टी की बागडोर संभाली थी और वह मोदी के खिलाफ अपने अभियान का नेतृत्व कर रहे थे।

उनको छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछले साल की विधानसभा जीत का श्रेय दिया गया। विधानसभा की जीत के बाद भी लोकसभा में इतनी बुरी हार कहीं ना कहीं उनपर सवाल खड़े करता है।

मतदाताओं ने कांग्रेस को क्या जरूरी मैसेज दिया?

कांग्रेस को फिर से महत्वपूर्ण राज्यों में अपने संगठन का पुनर्निर्माण करना होगा इससे पहले कि वह फिर से एक राजनीतिक ताकत बनने की उम्मीदों को छोड़ना शुरू कर दें। NYAY योजना मतदाता के साथ जुड़ने में विफल होने का एक कारण यह हो सकता है कि कांग्रेस कार्यकर्ता और पार्टी संगठन इसे प्रभावी रूप से बताने में विफल रहे।

राष्ट्रवाद बिकता है। कांग्रेस ने बीजेपी को पूरी तरह से इसको इस्तेमाल करने दिया और कांग्रेस साबित करने में विफल रही कि सभी दलों में इसी पार्टी का इतिहास सबसे राष्ट्रवादी रहा है।  इससे भी बदतर यह हुआ कि AFSPA जैसे मुद्दों और राजद्रोह कानून को निरस्त करने के वादे से कांग्रेस ने वास्तव में भाजपा के लिए फिल्डिंग सेट कर दी।

क्या यह चुनाव भारत में राजनीतिक ताकत के रूप में वामपंथ के अंत का संकेत देता है?

पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को एक भी सीट नहीं मिली वहीं 2014 से इसका वोटशेयर 34% से घटकर सीधा 8% हो गया है। केरल में इसे 20 में से एक सीट मिली है। तमिलनाडु में, सीपीएम और सीपीआई ने दो-दो सीटें जीती हैं।

कुल मिलाकर पांच सीटें हुईं जो लोकसभा चुनावों में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है और यह संसद में केवल एक प्रभावशाली आवाज नहीं बन पाएगी। बंगाल में वामपंथी संगठन काफी कमजोर हो गया है। इसके नेतृत्व में वर्षों से कोई नया विचार नहीं आया है और यह 2019 के युवाओं को बहुत कम आकर्षित कर पाती है। वामपंथी अपनी विचारधारा के लिए एक सम्मोहक तर्क पेश करने के लिए संघर्ष करेंगे।

विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद भाजपा ने राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ में सारी सीटें कैसे जीतीं?

कांग्रेस ने एमपी और राजस्थान में सरकारें बनाईं। इन दोनों चुनावों में वोटशेयर की बात करें तो मामला वास्तव में बहुत नजदीकी था। मप्र में भाजपा का वोटशेयर मामूली रूप से अधिक था (41% बनाम कांग्रेस का 40.9%) जबकि राजस्थान में ये 39.39% पर बंद थे। छत्तीसगढ़ अपने आप में अपवाद था, जहां कांग्रेस ने 10 प्रतिशत अधिक वोट हासिल किए।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार चार महीने से अधिक समय में पूरी तरह से कृषि कर्ज माफी योजना को लागू नहीं कर सकी जिससे किसानों में नाराजगी रही। कमलनाथ और अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने और ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट पर ध्यान नहीं देने के कारण भी आंतरिक कलह पैदा हुई। राज्य और केंद्र के लिए मतदाताओं के पास अलग-अलग विकल्प भी थे। शुरुआती संकेत राजस्थान में लगने वाले नारे से पता चला था कि राजे तेरी खैर, मोदी तुझसे बैर नहीं”

क्या राहुल गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पराजय वंशवाद की राजनीति को खारिज करने का सुझाव देती है?

राहुल और सिंधिया हार गए हैं मगर मतदाताओं ने वंशवाद को पूरी तरह से खारिज नहीं किया है। 2014 में सपा के सभी पांच सांसद, मुलायम सिंह यादव के परिवार के सदस्य थे। इस बार केवल मुलायम और अखिलेश ही अपनी सीट बरकरार रख पाए हैं। कई जगह देखने को मिला कि लोगों ने वंशवाद की राजनीति को नकारा है फिर वो अमेठी हो या फिर गुना।

कांग्रेस की योजना NYAY गरीबों को क्यों लुभा नहीं पाई?

इसके दो पहलू हैं। पहला ये कि कांग्रेस योजना के मुख्य विशेषताओं को गरीबों के घरों तक पहुँचाने में विफल रही विशेष रूप से लगभग 20 राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों में जहां कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं था। वैसे देखा जाए तो ये उन राज्यों में भी डिलीवर नहीं हुआ जहां कांग्रेस की सरकार थी जैसे कि पंजाब और राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़। इसके अलावा मध्य प्रदेश में कृषि कर्ज माफी के थोड़े काम को देखते हुए कई लोगों ने सवाल खड़ा किया कि क्या पार्टी वास्तव में NYAY को ठीक तरीके से लागू कर पाएगी? दूसरा यही कि गरीब जनता को विश्वास नहीं है कि सरकार किसी भी तरह से लोगों को कैश दे सकती है।

बीजेपी के पक्ष में मजबूत जनादेश आने के क्या मायने हैं?

नई सरकार को लोकसभा में विधेयकों को पास कराने में आसानी होगी। लेकिन इसके लिए अभी भी राज्यसभा में बातचीत करनी पड़ सकती है, जहां यह बहुमत से कम है। 250 सदस्यीय उच्च सदन में 23 सहयोगी दलों के सदस्यों के साथ भाजपा के पास अपने स्वयं के 73 सदस्य हैं।

मनी बिल के रूप में कुछ कानूनों को आगे बढ़ाकर राज्यसभा में संख्या की इस कमी को पूरा किया गया। इसके अलावा, विपक्ष के भीतर, सभी पक्षों में सभी मुद्दों पर एक समान स्थिति नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए वाईएसआर कांग्रेस, टीआरएस और बीजद, जिनकी नई लोकसभा में दोहरे अंकों की ताकत होगी ये ना तो यूपीए का हिस्सा हैं और न ही एनडीए का। वे सरकार से लाभ उठाने की उनकी क्षमता के आधार पर फैसला करेंगे। सरकार राज्य सभा में संवैधानिक संशोधनों के लिए जोर नहीं लगा सकती है लेकिन अधिक राज्यों के भाजपा के प्रभाव में आने के साथ यह अपने सहयोगियों के साथ बहुमत के निशान को पार कर सकती है।

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