बुधवार को मुंबई पुलिस ने एक 38 वर्षीय होम्योपैथिक डॉक्टर सुनील कुमार निषाद को एक शिकायत के बाद गिरफ्तार किया जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के भोपाल लोकसभा उम्मीदवार प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बारे में फेसबुक पेज पर अपमानजनक टिप्पणी की थी साथ ही साथ “हिंदू विरोधी” और एंटी ब्राह्मणवादी पोस्ट भी शेयर की थी।
निषाद के फेसबुक पेज पर एक पोस्ट बताती है कि प्रज्ञा ठाकुर हत्या और आतंक के मामलों में एक आरोपी है। फैक्ट्स की बात करें तो ये बात पूरी तरह से सही है। मालेगांव में 2008 बम विस्फोटों के लिए प्रज्ञा ठाकुर पर केस चल रहा है जहां छह लोग मारे गए और कम से कम 100 घायल हो गए।
पश्चिम बंगाल में इसी तरह की घटना के कुछ दिनों बाद भारतीय जनता पार्टी शासित महाराष्ट्र में फ्री स्पीच के अधिकार का यह घोर उल्लंघन है जहां सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फोटोशॉप्ड तस्वीर को शेयर करने के लिए एक भाजपा कार्यकर्ता प्रियंका शर्मा को गिरफ्तार किया गया था। क्योंकि वह सत्तारूढ़ पार्टी की सदस्य है, शर्मा की गिरफ्तारी ने मीडिया में तूफान पैदा कर दिया।
उनके मामले ने नियमित न्यायिक प्रणाली पर काफी प्रभाव जमाया और तीन दिनों के भीतर ही सर्वोच्च न्यायालय ने खुद ही जमानत दे दी। हालाँकि ममता बनर्जी मीम विवाद ने भारत में व्यवस्थित रूप से फ्री स्पीच को मजबूत करने में कोई भूमिका नहीं निभाई।
यहां तक कि जब शर्मा का मामला मीडिया में उछाला जा रहा था और उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हो रही थी तभी मुंबई पुलिस निषाद को गिरफ्तार करने के लिए खोज रही थी। शिकायतकर्ता ने कहा है कि निषाद के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए “पुलिस बहुत सहयोगी थी”
भारत में स्पीच के लिए गिरफ्तारियां निराशाजनक है। 5 मई को, एक 23 वर्षीय व्यक्ति को नरेंद्र मोदी की फोटोशॉप्ड फोटो को शेयर करने के लिए गिरफ्तार किया गया था वही काम जो प्रियंका शर्मा ने किया था। 2017 में, उत्तर प्रदेश के जाकिर त्यागी को सरकारी नीति की आलोचना करने वाले एक सोशल मीडिया पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया गया था और इसके लिए उसे 42 दिन जेल में बिताने पड़े थे।
साफ तौर पर ये सभी केस कुछ ऐसे हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिशें लगाते नजर आते हैं। प्रियंका शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट का तुरंत हस्तक्षेप स्वागत योग्य है लेकिन यह अपवाद है। अधिकांश अन्य मामलों में बहुत कम ध्यान दिया जाता है। पुलिस और न्यायिक प्रणाली अधिकतर फ्री स्पीच के बचाव के लिए काम करती नहीं दिखती है। मूल रूप से सामाजिक और राजनीतिक दबाव पर चलती नजर आती हैं।
यह स्पष्ट है कि एक सिस्टमेटिक समाधान की आवश्यकता है जो कि इंडिया के फ्री स्पीच कानूनों की मरम्मत करके ही किया जा सकता है। भारत के राजनेताओं और न्यायाधीशों को ईशनिंदा और मानहानि जैसे कानूनों पर लंबे समय तक कड़ी नज़र रखने की ज़रूरत है।
कुछ मामलों में, निरंतर दबाव ने नतीजे सामने आए भी हैं। 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए को हटा दिया जो फ्री स्पीच के अधिकार पर रोक लगाती थी। 2019 के आम चुनाव के लिए कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में भारत की कानून पुस्तिकाओं से आपराधिक मानहानि और देशद्रोह को हटाने का वादा किया है।
इसके बावजूद, भारत के भीतर अभी भी मजबूत वर्ग हैं जो स्पीच को प्रतिबंधित करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने वास्तव में ब्रिटिश राज के तहत भारत के राजद्रोह कानून को और भी मजबूत बनाने का वादा किया है।
जब तक भारत के कानूनों को फ्री स्पीच के अधिकार की रक्षा के लिए संशोधित नहीं किया जाता तब तक भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ यह एक काला निशान बना रहेगा।