भारत में 15वीं शताब्दी के महान संत, कवि, समाज-सुधारक और दर्शनशास्त्री रहे संत रविदास की 27 फरवरी को जयंती है। उन्होंने उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया था। रविदास ने सामाजिक सुधार के लिए अपने लेखनों, कविताओं के जरिए आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए। साथ ही लोगों को यह सिखाया कि हमेशा बिना किसी भेद-भेदभाव के प्रेम करना चाहिए। ऐसे में इस ख़ास मौके पर जानते हैं उनके जीवन के बारे में..
वाराणसी के पास सीर गोवर्धनपुरा गांव में जन्मे
संत रविदास का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य में वाराणसी (बनारस) के पास सीर गोवर्धनपुरा गांव में माघ मास की पूर्णिमा के दिन संवत् 1398 को हुआ था। संत रविदास को रैदास, रोहिदास, रूहिदास जैसे कई नामों से भी जाना जाता है। उनके पिता का नाम संतोख दास और माता का नाम कलसा देवी था। संत रविदास की पत्नी का नाम लोना देवी था। इनसे रविदास को दो संतानें प्राप्त हुई। उनके पुत्र का नाम विजयदास और बेटी का नाम रविदासिनी था।
जूता व्यवसायी पिता ने निकाल दिया था घर से
संत रविदास के पिता संतोख दास का जूते बनाने का व्यवसाय था। रविदास भी अपने पिता के कार्य में हाथ बंटाते थे। साधु-संतों और ईश्वरीय भक्ति की ओर रविदास का शुरू से ही बहुत झुकाव था। इसी के कारण वह जब भी किसी साधु-संत या फकीर को नंगे पैर देखते तो अक्सर उन्हें नए जूते-चप्पल बिना पैसे लिए ही दे देते थे। रविदास के संपर्क में आने वाले लोग उनके व्यवहार के कारण उन्हें बहुत पसंद करते थे।
साथ ही वे ज्ञानी जनों की संगत में बहुत-सा समय बिताते थे। इसका पता जब इनके पिता को चला तो वे बहुत नाराज हुए। इसके बाद पिता ने इनको घर से निकाल दिया। अपने पिता द्वारा घर से निकाले जाने के बाद रविदास ने अपने लिए कुटिया बनाई और जूते-चप्पलों की मरम्मत का काम करने लगे। अपने छोटे से व्यवसाय से जो आमदनी होती, उसी से गुजारा करते और साधु-संतों की संगत में रहते थे।
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ कहावत आज भी प्रसिद्ध
वैसे तो रविदास के जीवन के कई महत्वपूर्ण किस्से हैं लेकिन इनमें से कुछ बहुत सुनाए जाते हैं। एक बार की बात है कि संत रविदास के कुछ विद्यार्थी और अनुयायियों ने पवित्र नदी गंगा में स्नान के लिए पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना किया कि उन्होंने पहले से ही अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा कर दिया है तो अब वही उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। संत रविदास के एक विद्यार्थी ने उनसे दोबारा निवेदन किया तब उन्होंने कहा मेरा मानना है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ है।
मतलब शरीर को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से, अगर हमारी आत्मा और हृदय शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र है चाहे हम घर में ही क्यों न नहाए। संत द्वारा तब कही गई यह कहावत आज भी लोगों के बीच में बहुत प्रसिद्ध है।
कबीरदास ने ‘संतन में रविदास’ कहकर बड़ी मान्यता दी
रविदास का मध्ययुगीन साधकों में विशिष्ट स्थान माना जाता है। ऐसा कहा जाता रहा है कि संत रविदास भी कबीर की तरह ही उच्च कोटि के प्रमुख संत कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं। खुद कबीरदास ने ‘संतन में रविदास’ कहकर इनको बड़ी मान्यता दी थी। यह भी कहा जाता है कि दिल्ली के शासक सिकंदर लोदी ने उनकी ख्याति से प्रभावित होकर उन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था, लेकिन उन्होंने बड़ी विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया था।
बताते हैं उनका जीवनकाल 120 से 125 साल लंबा रहा। संत रविदास के निधन के बाद हर साल माघ मास की पूर्णिमा तिथि पर उनकी जयंती मनाई जाती है। इस दिन अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में उनकी कई समुदायों में विशेष मान्यता है।
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