भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना अमूल्य योगदान देने वाली व भारतीय क्रांति की जननी के नाम से मशहूर भीकाजी रुस्तम कामा की 24 सितंबर को 162वीं जयंती है। उन्हें ‘मैडम कामा’ के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने विदेशों में रहकर भारत की आज़ादी की अलख जगाई थी। साथ ही वहां के बौद्धिक वर्ग को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनकी लूट, शोषण और दमनकारी नीतियों से अवगत कराया था। मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट शहर में 22 अगस्त 1907 को सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस के दौरान भारतीय झण्डा फहराया था। जयंती के इस खास अवसर पर जानिए मैडम भीकाजी कामा के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
सम्पन्न पारसी परिवार में हुआ था मैडम कामा का जन्म
मैडम भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर, 1861 को महाराष्ट्र के बम्बई शहर (अब मुंबई) में एक सम्पन्न पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता सोराबजी पटेल मशहूर व्यापारी थे और उनकी नौ संतानें थीं। भीकाजी का लालन-पालन और शिक्षा पाश्चात्य परिवेश में हुई। फिर भी उनके हृदय में भारत माता की स्वतंतत्र के लिए जुनून बचपन से ही था। मैडम कामा की प्रारंभिक शिक्षा एलेक्जेंड्रा नेटिव गर्ल्स संस्थान में हुईं।
वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि वाली और संवेदनशील थीं। भीकाजी ज्यादातर ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध चलने वाली भारत की स्वतंत्रता की गतिविधियों में शामिल होती थी। उनका विवाह पारसी समाज सुधारक रुस्तमजी कामा के साथ 3 अगस्त, 1885 में हुआ था। इन दोनों का एक बेटा हुआ।
देश की आजादी के लिए लड़ाई में योगदान
मैडम कामा दिसंबर 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सदस्य बनी थी। उन्होंने जाति-पाति, ऊँच नीच, धर्म आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर सभी वर्गों की महिलाओं को एक मंच पर लाने का कार्य किया। उनके देशप्रेम के कारण उन्हें परिवार वालों का विरोध सहना पड़ा। मुंबई में वर्ष 1896 को जब प्लेग ने महामारी का रूप ले लिया तो मैडम कामा ने मरीजों की सेवा की।
इस दौरान वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई थी। वह अपना इलाज करवाने वर्ष 1902 में यूरोप चली गईं। इस दौरान जर्मनी, स्कॉटलैंड और फ्रांस होते हुए मैडम कामा वर्ष 1906 में लंदन पहुंच गई थी। जहां पर उनकी मुलाकात दादा भाई नौरोजी से हुई। इसके बाद उन्होंने दादाभाई की निजी सचिव के रूप कार्य किया। इस दौरान उनकी मुलाकात श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल और वीर सावरकर जैसे नामी क्रांतिकारियों से हुई। इन क्रांतिकारियों में से भीकाजी सबसे अधिक श्यामजी कृष्ण वर्मा के विचारों और भाषणों से प्रभावित हुई।
भीकाजी जब फ्रांस में थी तो उनकी ब्रिटिश हुकूमत विरोधी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनको वापस बुलाने की मांग की थी। परंतु वहां की सरकार ने इसे खारिज कर दिया था, जिससे ब्रिटिश सरकार ने उनकी संपत्ति को जब्त कर लिया और उनके भारत आने पर पाबंदी लगा दी। भीकाजी को उनके सहयोगी उन्हें भारतीय क्रांति की जननी मानते थे।
भीकाजी ने भारतीय झंडे का बनाया था डिजाइन
कामा ने अपने लंदन प्रवास के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर वर्ष 1905 में भारत के झंडे का पहला डिजाइन तैयार किया था। भीकाजी ने पहला झंडा खुद ही फहराया था। इस झंडे में देश के विभिन्न धर्मों की भावनाओं और संस्कृति को संजोया गया था। इसके पहले प्रारूप में हरा, लाल एवं केसरिया तीन रंगों की पट्टियों का इस्तेमाल किया गया। इसमें सबसे ऊपर लाल रंग की पट्टी थी, जिसमें आठ खिले हुए कमल तत्कालीन भारत के आठ प्रदेशों के प्रतीक थे। बीच में केसरी रंग की पट्टी में देवनागरी में ‘वन्दे मातरम’ लिखा था, नीचे की हरी पट्टी पर दायीं ओर अर्द्ध चन्द्र तथा बाईं ओर उगता हुआ सूरज दिखाया गया था। इस झंडे को सबसे पहले बर्लिन में और बाद में वर्ष 1909 में बंगाल प्रांत में फहराया गया था।
मैडम कामा ने भारतीय जनता का ब्रिटिश सरकार द्वारा किए जा रहे शोषण और दमन के खिलाफ विदेशों में खूब प्रचार किया। वह इसके लिए न्यूयार्क भी गई और वहां की मीडिया के समक्ष भारतीय जनता की दुर्दशा का विवरण दिया। उन्होंने अपने भाषणों में अमरीका के लोगों से कहा- ‘आप आयरलैंड और रूसी जनता का संघर्ष से हर प्रकार से परिचित हैं, भारतीयों के संघर्ष के बारे में भी जानकारी रखिए।’
मैडम भीकाजी कामा का निधन
विदेशों में रहकर भारत की आज़ादी के लिए संषर्घ करने वाली मैडम भीकाजी कामा का निधन 13 अगस्त, 1936 को मुंबई के पारसी जनरल अस्पताल में हुआ था। मृत्यु के समय उनके आखिरी शब्द ‘वंदे मातरम’ थे। मैडम भीकाजी कामा के योगदान को देखते हुए उन्हें सम्मान देने के लिए भारत में कई स्थानों और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। इसके अलावा 26 जनवरी, 1962 को उनके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम का डाक टिकट भी जारी किया।
Read: कैदियों से दुर्व्यवहार के विरोध में अनशन करते शहीद हो गए थे क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ दास