पिछले शुक्रवार को उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित 17 जातियों को अनुसूचित जाति ग्रुप में डालने का फैसला लिया। यह पहली बार नहीं है जब उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने ओबीसी आरक्षण बदलने का प्रयास किया है। द हिन्दू में एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में उच्च न्यायालय के रिटायर हो चुके न्यायाधीश राघवेंद्र कुमार की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश सरकार के पैनल ने 27% OBC ब्लॉक को तीन वर्गों में विभाजित करने की सिफारिश की थी जिसमें पिछड़े वर्ग को 7% पर, अतिपिछड़े वर्ग को 11% और अत्यन्त पिछड़े वर्ग को 9% आरक्षण पर रखा जाना था।
भाजपा की यह सोच दिल्ली में भी दिखाई देती है। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जी रोहिणी की अध्यक्षता में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान नियुक्त एक पैनल ने भी ओबीसी कोटा को तीन उप-श्रेणियों में विभाजित करने की सिफारिश की है।
17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति में स्थानांतरित करने की उत्तर प्रदेश की पहल जल्द ही एक कानूनी अड़चन बन गई है। संविधान के अनुसार एक राज्य सरकार अनुसूचित जाति की सूची में बदलाव नहीं कर सकती है। हालांकि, ओबीसी आरक्षण को फिर से लागू करने के लिए जारी प्रयासों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भाजपा इस बारे में कुछ ज्यादा ही सोच रही है।
भाजपा की यह राजनीतिक रणनीति इस बात से प्रेरित है कि ओबीसी जातियों के विभिन्न गठबंधन ने पिछले दो आम चुनावों में पार्टी की जीत को संचालित किया है और नरेंद्र मोदी को भारत के सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक बनाया है।
अब वह सत्ता में है। भाजपा ओबीसी जातियों को इनाम देकर इस चुनावी गठबंधन को मजबूत करना चाहती है।
भारतीय राजनीति का ओबीसीकरण
अन्य पिछड़े वर्ग जातियों का एक विशाल कलेक्शन है जो उच्च जातियों और दलितों के बीच जाति व्यवस्था का गठन करता है। ओबीसी की आधी से अधिक जनसंख्या हिंदू आबादी है। हालांकि इस बड़े कलेक्शन के साथ ये बात भी है कि जमीन पर ऐतिहासिक रूप से कोई ओबीसी पहचान नहीं रही है।
हालांकि 1970 के दशक में इस तबके की पहचान की कमी के कारण बहुत कुछ बदलना शुरू हो गया। और इस जनसंख्या को नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने के प्रयास शुरू हुए। उस समय तक केवल दलित और आदिवासियों को आरक्षण में शामिल किया गया था। 1979 में जनता पार्टी की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार ने ओबीसी आरक्षण को देखने के लिए मंडल आयोग की नियुक्ति की। 1980 में जब कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई तो इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
1990 में एक और गैर-कांग्रेसी सरकार आई और इस बार वीपी सिंह के नेतृत्व ने घोषणा की कि वह मंडलीय आयोग द्वारा बताए गए ओबीसी आरक्षण को लागू करेगी। उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य की जनसंख्या भारत की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा है। यहां पर ओबीसी नेतृत्व वाले दल कांग्रेस के बिखरने के बाद मुख्य खिलाड़ी बन गए।
उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों में ओबीसी पार्टियों समाजवादी और राष्ट्रीय जनता दल ने कई ओबीसी जातियों के वोटों को अपनी ओर खींचा। वे मुख्य रूप से यादव जाति के सदस्यों के नेतृत्व में थे। यादवों के वर्चस्व के कारण कहीं ना कहीं दूसरी ओबीसी जातियां इससे संतुष्ट नजर नहीं आई।
भाजपा की जाति-रणनीति
भाजपा ने इस राजनीति को उठाया और गैर-यादव ओबीसी के लिए खुद को पुनर्जीवित करना शुरू कर दिया। 2014 में पहली बार भाजपा ने लोकसभा में बहुमत हासिल किया। भाजपा की जीत का प्रमुख कारण यह भी था। भाजपा ने ओबीसी में उन जातियों को टारगेट किया जिनका वर्चस्व नहीं था।
इस रणनीति ने 2019 के आम चुनाव में बीजेपी के पक्ष में और भी बेहतर काम किया। इस तरह भाजपा ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के 2019 के आम चुनाव में ओबीसी और दो सबसे बड़े सवर्ण समूहों के वोटों को आकर्षित किया।
ओबीसी ब्रैकेट के भीतर दो प्रमुख जातियों कुर्मी और कोइरी के 80% लोगों ने भाजपा को वोट दिया। अन्य ओबीसी (यादवों, कुर्मियों और कोइरी को छोड़कर) ने भाजपा को 72% तक वोट दिए। इसके विपरीत, उत्तर प्रदेश में प्रमुख ओबीसी समूह के केवल 23% यादवों ने भाजपा को वोट दिया।
‘ब्राह्मण-बनियों’ से परे
भाजपा ब्राह्मण और बनिया मतदाताओं के बीच उतनी ही लोकप्रिय है जितनी गैर-प्रमुख ओबीसी के बीच। भाजपा को परंपरागत रूप से ब्राह्मण-बनिया पार्टी के रूप में जाना जाता था। हालांकि डेटा से पता चलता है कि यह उत्तर प्रदेश में गैर-प्रमुख ओबीसी की एक मुख्य पार्टी के रूप में है। यह देखते हुए कि हिंदू धर्म में ओबीसी अकेला सबसे बड़ी आबादी वाला ग्रुप है यह भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। ध्यान देने वाली बात है कि ओबीसी को टारगेट करने के साथ बीजेपी ने सवर्ण और तथाकथित उच्च जातियों के अपने वोट बैंक को नहीं खोया।
हरियाणा जैसे राज्यों में भी इसी तरह के समीकरण बिठाए गए जहां भाजपा ने राजनीतिक रूप से प्रमुख जाति समूह जाटों के विरोध में खुद को व्यवस्थित किया है। उम्मीद है कि 2019 में अन्य जातियों का एक व्यापक गठबंधन बीजेपी की राह आसान करेगा।
ओबीसी कोटा को बढ़ाना
अब तक यादवों जैसे शक्तिशाली ओबीसी समूहों ने 1990 के दशक में राजनीति के मंडलीकरण से बड़ा लाभ हासिल किया है। न केवल राजनीतिक पुरस्कारों के लिए बल्कि नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में भी ओबीसी आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा है। रोहिणी पैनल के आंकड़ों के अनुसार 27% ओबीसी कोटे में से 25% पर केवल 10 जातियों का एकाधिकार था। अन्य 983 ओबीसी जातियों को ठंड में छोड़ दिया गया है।
ओबीसी कोटा का उप-वर्गीकरण, परिणामस्वरूप इन कम-शक्तिशाली ओबीसी जातियों को आरक्षण का लाभ उठाने का बेहतर मौका देगा क्योंकि उन्हें यादवों जैसे शक्तिशाली समूहों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करनी होगी।
निश्चित रूप से राजनीतिक रूप से यह इन जातियों को 2019 में इतनी बड़ी संख्या में भाजपा को वोट देने के लिए एक तरह का इनाम है और यह सुनिश्चित करेगा कि वे भविष्य में भगवा पार्टी के साथ रहें।
बीजेपी पूरी तरह से अखिल हिंदू पहचान के आधार पर चुनाव लड़ती नजर आती है लेकिन वास्तविकता अधिक जटिल है। धार्मिक पहचान की राजनीति भाजपा करती आई है इसका मतलब जाति का अंत नहीं है। आजादी के इतने साल बाद ओबीसी कोटे में अब 2019 में परिवर्तन हो रहे हैं तो इसका मतलब यही है कि जाति ही राजनीति का प्रमुख बिन्दु है।