बयानबाजी बहुत हुई, पार्टियों को घोषणा पत्र पर गंभीर होने की जरूरत है!

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मंगलवार को कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए अपना घोषणापत्र जारी किया जिसके बाद ऐसा पहली बार हो रहा है जब बयानबाजी के बजाय नीतियों और प्रोग्राम्स पर चर्चा शुरू हुई है।

घोषणा पत्र ने सामाजिक लोकतंत्र की पार्टी के रूप में कांग्रेस की धारणा को मजबूत किया। इसने प्रत्येक नागरिक के लिए एक न्यूनतम आय का वादा किया है जिसे अगर लागू किया जाता है, तो यह भारत की सबसे बड़ी कल्याणकारी योजना होगी। पार्टी ने वादा किया है कि खाली पड़े सरकारी रोजगार दिए जाएंगे और अपने कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ किसानों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाएगा।

कांग्रेस ने सरकारी निकायों में जाति और धार्मिक विविधता प्रथाओं के साथ-साथ सेक्सुअल और जेंडर अल्पसंख्यकों के अधिकारों को संबोधित करने और सामाजिक प्रगतिशील स्थान पर उनके स्थान की मांग की है। फ्री स्पीच और भी मजबूत होगी अगर कांग्रेस अपना वादा पूरा कर पाती है तो। इसमें कहा गया है कि राजद्रोह और आपराधिक मानहानि पर कानूनों को हटाने की योजना है।

घोषणापत्र कांग्रेस के प्रगतिशील फोकस से सहमत किसी भी व्यक्ति के लिए एक अच्छी पिच थी। इसकी टाइमिंग थोड़ी समस्या पैदा करती है। लोकसभा चुनाव का पहला चरण 11 अप्रैल को है। अब बस एक हफ्ता से थोड़ा सा ज्यादा समय बचा है। हालांकि घोषणापत्र व्यापक दिखता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने भी उस विजन के बारे में नहीं सोचा है जिसे वह जमीन पर वोट पकड़ने वाले के रूप में पेश कर रहे हैं।

यह धारणा जोड़ना कि पार्टियां घोषणा पत्र को गंभीरता से नहीं लेती हैं यह भारतीय जनता पार्टी की प्रतिक्रिया थी। कांग्रेस के प्रस्तावों पर बहस करने के बजाय केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने मंगलवार को इस अजीब आरोप के साथ जवाब दिया कि दस्तावेज़ को कांग्रेस अध्यक्ष के दोस्त टुकड़े टुकड़े गैंग द्वारा तैयार किया गया है।

यह विचार है कि भाजपा घोषणापत्र के बारे में ज्यादा नहीं सोचती है यह इस तथ्य से पता चलता है कि कि पार्टी को 2019 के चुनाव के लिए अपना स्वयं का विज़न दस्तावेज़ जारी करना बाकी है। पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने ऐसा करने के लिए लास्ट मूमेंट तक वेट किया और मतदान के पहले दिन अपना घोषणापत्र जारी किया।

भाजपा और कांग्रेस अकेले नहीं हैं। राजनीतिक स्पेक्ट्रम के आर-पार घोषणापत्रों को हमेशा से साइड लाइन शो के लिए रखा जाता है। भारत की राजनीति पर बयानबाजी हावी है जिसमें सांप्रदायिक बयान, जातिगत पहचान और धार्मिक संदेश विकास के मुद्दों के ऊपर नाचते दिखते हैं।

राजनीति के इस स्टाइल में भारतीय मतदाता हार जाता है। भाजपा के हिंदुत्व के आधार पर भावनात्मक अपील या राहुल गांधी का जाति का संदर्भ वेल्थ क्रिएशन या संसाधनों तक अच्छी पहुंच जैसी वास्तविक चिंताओं के लिए कुछ नहीं करता है।
इसके अलावा मतदाता उन कुछ ठोस नीतियों पर पार्टियों को जवाबदेह रखने में असमर्थ हैं जिन्हें राजनेता प्रस्तावित करते हैं। मिसाल के तौर पर नरेंद्र मोदी के 2013 के वादे में कहा गया था कि हर भारतीय को कम से कम 15 लाख रुपये मिलेंगे। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बाद में इस वादे को एक “जुमले” के रूप में चित्रित किया।

घोषणापत्र के अनुसार वे जिस महत्व के पात्र हैं, वह मतदाताओं को अधिक जानकारी के साथ अपना विकल्प चुनने और राजनीतिक दलों को बिना किसी बहाने के उन नीतियों पर काम करने को दबाव डालने में मदद करेगा।

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