पेड़ों को बचाने के लिए यूं शुरू हुआ था चिपको आंदोलन

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उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों ने 1970 में चिपको आंदोलन की शुरुआत की थी। इसके तहत लोग पेड़ों से चिपक गए थे ताकि पेड़ों की जान बचाई जा सके। लोगों का पेड़ों का गले लगाना और प्रकृति के लिए सोचना प्रेम का प्रतीक माना गया और इसी कारण इसे ‘चिपको’ की संज्ञा दी गई।

दरअसल 1970 में आई भयंकर बाढ़ के कारण ही इस आंदोलन का जन्म हुआ था। इस बाढ़ से 400 किमी. तक का इलाका ध्वस्त हो गया तथा पांच बढ़े पुल, हजारों मवेशी, लाखों रूपये की लकडी व ईंधन बहकर नष्ट हो गयी। बाढ़ के पानी के साथ बही गाद इतनी अधिक थी कि उसने 350 किमी. लम्बी ऊपरी गंगा नहर के 10 किमी. तक के क्षेत्र में अवरोध पैदा कर दिया जिससे 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गर्ई थी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया था। इस त्रासदी ने लोगों को यह समझाने में मदद की कि पेड़ों का होना कितना आवश्यक है।

वन-सम्पदा के माध्यम से रोजगार देने के उद्देश्य से कुछ पहाड़ी नौजवानों ने 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केंद्र को सन् 1972-73 के लिए अंगु के पेड़ देने से इंकार कर दिया था। पहले ये पेड़ नजदीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गांव वाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकड़ी से जरूरत के मुताबिक खेती-बाड़ी के औजार बनाते थे। पहाड़ी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता था। ठण्डे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंगु सबसे अच्छी लकड़ी है। यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठण्डी होती है, न गरम, इसलिए कभी फटती नहीं है।

लेकिन इसी दौरान वन विभाग ने इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी। यह कम्पनी खेल कूद की सामग्री बनाती थी। अंगू से खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाए-इससे गांव के लोगों या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नही था। वे तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जाए और फिर खेल की।

चिपको आंदोलन का मूल केंद्र रेनी गांव (जिला चमोली) था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेत्तृत्व में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराए गए, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है, बल्कि मिट्टी का क्षरण भी रोकते है।

इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकड़ने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय, गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गए। अब गांव में सिर्फ महिलाएं ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये 27 औरतों ने श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई।

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