2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने देश की आवाम को एजुकेशन सेक्टर में एक नई एजुकेशन पॉलिसी का ड्राफ्ट लाने का वादा किया था। एजुकेशन पॉलिसी को लेकर ड्राफ्ट आखिरी बार 1986 में तैयार किया गया था जिसे 1992 में अपडेट किया गया था।
अब सरकार ने कार्यभार संभालने के बाद इसका जिम्मा मानव संसाधन विकास मंत्रालय को दिया, एमएचआरडी ने पॉलिसी का ड्राफ्ट तैयार करने वाली एक कमेटी बनाने का निर्णय किया, जिसे नियुक्त करने के लिए डेढ़ साल से अधिक का समय लगा। पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अगुवाई में कमेटी बनाई गई जिसने अपनी 230 पन्नों की रिपोर्ट मई 2016 में सरकार के सामने पेश कर दी।
रिपोर्ट में कॉलेज कैम्पस में होने वाली पॉलिटिक्स पर नकेल कसने की बात कही गई, क्लास 10वीं बोर्ड परीक्षाओं को फिर से शुरू करने और पब्लिक स्कूलों के लिए कई नियम कायदे बताए गए।
सुब्रमण्यम कमेटी की यह रिपोर्ट जब पब्लिक डोमेन में आई तो इससे एक नई बहस छिड़ गई। विशेषज्ञों ने रिपोर्ट में कुछ नया नहीं बताया। सरकार ने इसके बाद 26 जून, 2017 को वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अगुवाई में फिर से एक नया पैनल बनाया लेकिन तीन एक्सटेंशन बाद भी यह पैनल अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर पाया।
हालांकि, सरकार ने इस बीच किसी रिपोर्ट का इंतजार नहीं किया और स्कूली शिक्षा और हायर एजुकेशन में कई बदलाव किए। इन बदलावों में स्कूलों का विलय, राइट टू एजुकेशन 2009 का कमजोर होना और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन में सुधार के कई प्रयास शामिल हैं।
योजनाओं का विलय, बजट में कमी
भारत ने 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून पारित किया। कानून को लागू करने के लिए मुख्य योजना सर्व शिक्षा अभियान थी, जिसमें क्लास 1 से 8 तक के बच्चों को शिक्षा मुहैया करवाना था। 2018 में, मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा अभियान को सर्व शिक्षा अभियान के साथ विलय कर दिया, जो कि क्लास 9 और उससे ऊपर की माध्यमिक शिक्षा योजना है। वहीं इसमें केंद्र की तरफ से टीचरों को भी शिक्षा दी जाती है।
सरकार ने इसे “समग्र शिक्षा अभियान” नाम दिया जिसका उद्देश्य हर लेवल के स्कूली छात्रों को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा देना रखा गया।
लेकिन विशेषज्ञों ने कहा कि सर्व शिक्षा अभियान को विलय करने के साथ शिक्षा के लिए आवंटित फंड में कमी हमें हैरान करता है। 2018-19 के केंद्रीय बजट में, सभी योजनाओं का आवंटन अलग-अलग डिपार्टमेंट के तहत किया जाता था, लेकिन मई तक, इन सभी डिपार्टमेंट को आपस में मिला दिया गया और एक ही फंड जारी होने लगा।
राज्यों की रिपोर्टों से पता चलता है कि एक फंड किसी भी योजना के तहत पहले अलग-अलग मिलने वाले फंड से काफी कम था औऱ फंड जारी होने में भी देरी हुई।
शिक्षा पर केंद्र सरकार की ओर से खर्च 2015-16 के बाद से हर साल कुल बजट का 4% से कम हो गया। 2018-19 में शिक्षा के लिए 3.5% बजट दिया गया जो इस दशक में पारित किया गया सबसे कम पैसा है।
राज्यों पर हावी होता सरकार का एजेंडा
किसी राज्य की स्कूली शिक्षा उस राज्य का विषय है जिसमें केंद्र की भूमिका केवल उन योजनाओं के लिए शर्तें तय करने तक सीमित होती है, जिनके लिए वो फंड जारी करता है। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में यह हस्तक्षेप कहीं ज्यादा दिखाई दिया।
सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय और नीति आयोग दोनों ने ही राज्यों में शिक्षा सुधारों के लिए ब्लूप्रिंट बनाया। ब्लूप्रिंट में सरकार की तरफ से स्कूल-रैंकिंग सिस्टम को सामने लाया गया जिसमें “परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स” 2018 में पेश किया गया था, जो यह वादा करता है कि किसी भी राज्य को शिक्षा में उनके प्रदर्शन के आधार पर केंद्र से अधिक फंड जारी किया जाएगा।
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूलों में आधार लिंकिंग पर रोक लगा दी जिससे केंद्रीय फरमान सर्व शिक्षा अभियान, मिड-डे मील योजना और छात्रवृत्ति कार्यक्रमों जैसी योजनाओं को बड़ा झटका लगा जिसमें हर स्कूल को इस योजना से जोड़ना अनिवार्य करने को कहा था।
सरकार का इसके पीछे तर्क था कि आधार से लिंकिंग स्कूलों में होने वाले “नकली” नामांकन को रोकने के लिए हैं। लेकिन इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर स्कूली छात्रों को कई परेशानियां हुई। कई बच्चों को आधार ना होने पर स्कूल से बाहर कर दिया गया तो उत्तर प्रदेश और यहां तक कि दिल्ली जैसे राज्यों में केंद्र की योजनाओं को रोक दिया गया।
अप्रैल 2017 में, स्कूल बोर्ड की परीक्षाएं जल्दी शुरू हो गई, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानि सीबीएसई ने राज्यों को “मार्क्स मॉडरेशन” अपनाने को कहा। मार्क्स मॉडरेशन तरीके में पेपर में गलतियों की भरपाई करने के लिए अतिरिक्त अंक देने और साथ में कठिन सवालों के लिए हार्ड चैकिंग का कहा गया था।
लेकिन कई राज्यों ने इस फैसले को नहीं सुना और सीबीएसई को दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि वह खुद अपने परिणामों को बदले।
योजनाएं कई लागू हुई पर डेटा अभी तक जारी नहीं हुआ
फरवरी 2017 में, मंत्रालय ने छात्रों को हर विषय और सेक्शन के हिसाब से सिखाने के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के केंद्रीय नियमों में संशोधन किया।
इसके बाद क्लास 1 और 2 के छात्रों की रीडिंग स्किल सुधारने के लिए के लिए ‘पढ़े भारत बढ़े भारत’ जैसी अन्य योजना की शुरुआत हुई, वहीं बच्चों को साइंस और टेक्नोलॉजी में प्रोत्साहित करने के लिए ‘राष्ट्रीय आविष्कार योजना’ लागू की गई।
नीति आयोग ने 2,000 से अधिक स्कूलों में साइंस लेबोरेट्री के लिए फंड जारी किया, जिनमें से एक बड़ी संख्या में प्राइवेट स्कूल शामिल थे।
सरकार ने 2017 में नेशनल अचीवमेंट सर्वे का भी विस्तार किया। एक साल में लगभग 1.5 से 2 लाख बच्चों के सीखने की उपलब्धियों का सर्वे किया गया, जिसे राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान संचालित करती है। वहीं क्लास 3, 5 और 8 में लगभग 25 लाख छात्रों का सर्वे किया गया। हालांकि इन सभी के बारे में अभी कोई डेटा सामने नहीं आया और ना ही कोई सरकारी रिपोर्ट जारी हुई है।
हालांकि, कम परिणामों का हवाला देते हुए, मोदी सरकार ने पिछली सरकार के तहत लागू की गई कई योजनाओं को उलट दिया जिसमें सबसे बड़ा उलटफेर नो डिटेंशन पॉलिसी को खत्म करना था। अगस्त 2015 में, सेंट्रल एडवाइजरी बॉडी ने सिफारिश की कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत लागू नो-डिटेंशन पॉलिसी को खत्म कर दिया जाए जिसमें कहा गया था कि क्लास 8 तक बच्चों को फेल ना किया जाए, क्योंकि इस पॉलिसी का मानना था कि किसी भी छात्र का विकास उसके साल में एक या दो बार ली जाने वाली परीक्षा से तय नहीं किया जा सकता है।
सरकार ने इस पॉलिसी को खत्म करने के लिए 2017 में लोकसभा के मानसून सत्र में बिल पेश किया जिसे 3 जनवरी, 2019 को राज्यसभा में भी पास कर दिया गया।
CBSE की साख पर लगा बट्टा
मार्च 2018 में, सीबीएसई की क्लास 10 के गणित और क्लास 12 के इकोनॉमिक्स के पेपर परीक्षा से पहले सोशल मीडिया के जरिए लीक हो गए। भारी फजीहत के बाद सीबीएसई ने केवल इकोनॉमिक्स का पेपर फिर से करवाया।
मोदी सरकार के तहत CBSE की तरफ से परीक्षा के दौरान की जाने वाली सुरक्षा में यह पहला उल्लंघन नहीं था। जून 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया प्री-मेडिकल टेस्ट यानि नीट परीक्षा को धोखाधड़ी के सबूत मिलने के बाद फिर से करवाने के आदेश जारी किए थे।
मई 2017 में, CBSE ने नीट परीक्षा का नए सिरे से आयोजन किया जिसके बाद सभी राज्यों में होने वाले प्री-मेडिकल टेस्ट में बदलाव आया। यह फैसला तुरंत मुकदमों में फंस गया, उम्मीदवार विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग पेपर सेट करने के लिए सीबीएसई को अदालत में ले गए। नवंबर 2017 में, कैबिनेट ने एक अलग नेशनल टेस्टिंग एजेंसी नाम से बॉडी बनाई जिसको ऐसी परीक्षाएं करवाने का जिम्मा दिया।
टीचर ट्रेनिंग
शिक्षा का अधिकार कानून 2009 – 2010 में लागू किया गया था जिसमें सरकार ने सभी स्कूल टीचरों को एजुकेट करने के लिए पांच साल का समय दिया था। लेकिन 2015 खत्म होने तक स्कूलों में 11 लाख अप्रशिक्षित टीचरों के आंकड़ें सामने आए। अगस्त 2017 में, सरकार ने इस समय सीमा को 2019 तक बढ़ाने के लिए कानून में संशोधन किया।
इसी बीच, सरकार ने ऑनलाइन लर्निंग पोर्टल “स्वयं” शुरू किया, जिसका पूरा नाम ’स्टडी वेब्स ऑफ एक्टिव-लर्निंग फॉर यंग एस्पायरिंग माइंड्स’ है। अप्रैल 2018 तक, 7 लाख से अधिक अप्रशिक्षित टीचरों ने इसमें साइन अप किया था, लेकिन विशेषज्ञ इस तरह के ट्रेनिंग तरीकों की प्रभावशीलता पर अब भी संदेह करते हैं।