सावित्री बाई फुले : बीजेपी की यह बागी नेता जिसे गांव के लोग दूसरी मायावती कहते हैं

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सावित्री बाई फुले 14 साल की थी तब पहली बार लोगों की नजरों में तब आई जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थी और 1995 में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए वो बहराइच आई हुई थी, तभी वहां फुले ने भीड़ को संबोधित किया और आम्बेडकर और संविधान के बारे में कई बातें की, बसपा सुप्रीमो उसकी ये बातें सुनकर काफी प्रभावित हुईं।

आज सावित्री बाई फुले एक बार फिर चर्चा में है। राजनीति में शामिल होने के बाद कम उम्र में बसपा जॉइन करना, बसपा से बीजेपी में जाना, चुनाव लड़ना और सांसद बनकर लोकसभा पहुंचना, लेकिन अब फुले के राजनीतिक सफर में एक कड़ी और जुड़ गई है। जी हां, सावित्रीबाई फुले ने बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है।

फुले ने अपने पूरे राजनीतिक सफर में कभी भी आम्बेडकर और संविधान के लिए अपना जुनून, दलितों की बात करना कभी नहीं छोड़ा।

भाजपा के खिलाफ छेड़ा मोर्चा

फुले के बयानों में पिछले कुछ समय से भाजपा के खिलाफ बागी सुर और नाराजगी देखी जा सकती है। एससी/ एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद दलित मुद्दों को लेकर भाजपा पर कई गंभीर हमले किए। इसके अलावा आरक्षण को लेकर भाजपा नेताओं द्वारा दिए जाने वाले बयानों को लेकर भी उनको कई बार घेरा।

राजनीति में एंट्री

यूपी के बहराइच जिले के हुसेनपुर मृदांगी गांव में पैदा हुई सावित्री फुले अपनी तीन बहनों और दो भाइयों में सबसे बड़ी हैं। उनका परिवार बीएएमसीईएफ से जुड़ा था, जो बीएसपी संस्थापक काशीराम के नेतृत्व में चलने वाला एक गैर-राजनीतिक संगठन था।

1995 में बहराइच की रैली में मायावती ने उनकी तारीफ की तो जब वो घर लौटी तो उसके सभी रिश्तेदार इसी चर्चा में थे कि यदि बहनजी (मायावती) मुख्यमंत्री बन सकती हैं, तो सावित्री क्यों नहीं बन सकती?

दलित कार्यकर्ता अक्षयनाथ कन्नौजिया और फुले के पिता के दोस्त फुले को गोद लेना चाहते थे और उनके परिवार वाले मान गए। तब से कन्नोजिया जी ने फुले के पिता, गुरु और गाइड का रोल निभाया और सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें उजागर किया।

प्रारंभ में, सावित्री देवी के नाम से जानी गई लेकिन बाद में कन्नोजिया ने उन्हें 19वीं शताब्दी के सुधारक और महाराष्ट्र की महान कवयित्री सावित्री बाई फुले के नाम पर नाम दे दिया।

बीएसपी से बीजेपी तक का सफर

अपने राजनीतिक सफर के प्रारंभिक दिनों में, फुले बसपा में शामिल हो गई लेकिन 2000 में मायावती ने कुछ स्थानीय विवादों पर उन्हें निलंबित कर दिया था। 2001 में, उन्होंने जिला पंचायत चुनाव लड़ा और जीता। इसके बाद वह बीजेपी में शामिल हो गईं जहां साल 2002, 2007 और 2012 में विधानसभा चुनाव लड़े। बहराइच में बलहा निर्वाचन क्षेत्र से जीतने वाली वो आखिरी प्रत्याशी थी।

2014 में, उन्हें आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बहराइच से ही लोकसभा चुनाव लड़वाया गया जहां से उन्होंने लगभग एक लाख वोटों से जीत हासिल की।

फुले नमो बुद्ध जन सेवा समिति नाम से एक संगठन चलाती है और बहराइच के ग्रामीण हिस्से में एक छोटे आश्रम में रहती है। कन्नोजिया ही इसी संगठन के अध्यक्ष हैं।

एक कारण के साथ बागी

फुले ने अपनी पहली बड़ी रैली 1 अप्रैल को लखनऊ में आयोजित की जहां उन्होंने दलित मुद्दों पर बीजेपी के स्टैंड को खूब घेरा। इसके बाद वह दिल्ली में भी इस तरह की रैली की योजना बना रही है। लखनऊ रैली में दलित नेता के रूप में फुले को पहली बार एक बड़ी ताकत के रूप में देखा गया।

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