मीडिया में फिलहाल बड़ी अफरा तफरी है। राजनीति में कई नए रिश्ते बन रहे हैं कुछ बिगड़ भी रहे हैं। लेकिन मीडिया इस चीज को लेकर काफी हरकत में नजर आ रहा है।
यदि राहुल गांधी एन चंद्रबाबू नायडू से मिलते हैं, या कई राजनीतिक दल एक मंच पर साथ आते हैं या तेजस्वी यादव मायावती के पैर छूते हैं तो मीडिया स्टूडियो में मानों एक भूचाल सा आ जाता है।
मीडिया जगत में फिलहाल आपको ऐसे कई एंकर्स मिल जाएंगे जो खुल कर अपने राजनैतिक झुकाव को टीवी और स्टूडियो में दिखा रहे हैं। modi vs all उन्हीं नारों में एक है।
विभिन्न राज्यों में सहयोगी दलों पर भाजपा की अपनी निर्भरता को देखें। मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस 110 लोकसभा सीटों पर एक-दूसरे से लड़ती हैं।
तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गोवा, बिहार, झारखंड, पंजाब और जम्मू और कश्मीर की 273 लोकसभा सीटों में, NDA और UPA एक-दूसरे से लड़ते हैं। पंजाब और गोवा दो राज्य हैं जहां कांग्रेस nda से अकेले लड़ रही है।
बचे हुए राज्यों और जगहों पर एक और मोर्चा बनाने का प्रयास कर किया जा रहा है। और इसलिए ये अटकलें लगाई जा रही हैं। और तीखे चुनाव में एक और मोर्चा बनाना कोई आसान काम नहीं है।
42 पाटनर्स के साथ एनडीए का गठन करने के बाद भी मोदी इस फ्रंट के अकेले चेहरे क्यों बने हुए हैं? जैसा कि मीडिया में भी दिखाया जा रहा है।
अकेले महाराष्ट्र में, भाजपा चार सहयोगियों के साथ चुनाव में उतरती है। तमिलनाडु में, जहाँ भाजपा का एक ही संसदीय सदस्य है वहां भी पार्टी छह दलों के साथ पार्टनर शिप में है। अन्य दक्षिणी राज्यों में भी कहानी यही है।
इस चीज में हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि 2014 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी को एक साहसी, बलवान और 56 इंच की छाती के साथ प्रोजेक्ट किया गया था। यह भी इस प्रोजेक्शन को काफी प्रभावित करता है। साइकोलोजिकल तौर पर देखा जाए तो प्रोजेक्टर्स नरेन्द्र मोदी को एक बुलेट ट्रैन की सोच रखने वाला प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। नरेन्द्र मोदी की छवि को ताकतवर पेश करने में बीजेपी ने सफलता हासिल की है।
लेकिन जरूरी नहीं कि इमेज मैकर्स की यही चाल दुबारा अच्छी साबित हो। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि वही प्रोजेक्शन कहीं ना कहीं बीजेपी के लिए ही खतरा है। अब वो 56 इंच के तौर पर किसी को प्रोजेक्ट करना अच्छा नही होगा जब सरकार पर सीबीआई, आइबीआई जैसी जगहों पर हस्तक्षेप के आरोप लग रहे हैं। अब जब अर्थव्यवस्था पर एक गहरा आघात लगा है मोदी को ठीक उसी तरह प्रोजेक्ट करना बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हो सकती है।
मोदी-शाह-जेटली के लिए एक दिलचस्प चुनौती के रूप में एक सवाल है जो खड़ा होता है- क्या नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव अपने दम पर पूरी तरह से लड़ने की घोषणा कर सकती है? वो भी 543 सीटें?
यदि यह अकेले नहीं लड़ सकती है तो गठबंधन को अवसरवाद या मोदी बनाम अन्य के रूप में कहना बंद होना चाहिए। अगर पीडीपी-बीजेपी अवसरवाद का गठबंधन नहीं था; अगर जद (यू) -बीजेपी का पुनर्मिलन एक अपवित्र गठबंधन नहीं है तो इस स्थिति में मोदी बनाम सब कहना कहां तक सही है?
2014 में बीजेपी अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसके बाद का अगर ग्राफ देखें तो भाजपा अपने विभिन्न अवतारों में हमेशा गठबंधन सरकारों में ही रही है। 1977 की मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी या वीपी सिंह के नेतृत्व वाली (और भाजपा समर्थित) राष्ट्रीय मोर्चा, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए यह हमेशा से ऐसा ही चलता आ रहा है। तो अब पनप रहे गठबंधन को अपवित्र बताना कहां तक सही है? बीजेपी भी इसी रणनीति का हिस्सा रही है।
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