लोकसभा चुनावों का माहौल फिलहाल जोरों पर है। पार्टियों के मिलने बिछड़ने का सिलसिला शुरू हो चुका है। गठबंधन की गलियों में कांग्रेस को लेकर बहुत कुछ चल रहा है। महागठबंधन की उम्मीद और भाजपा विरोधी खेमे को मजबूत करने की जद्दोजहद चल रही है। भाजपा भी इस रेस में पीछे नहीं है। बिहार में गठबंधन बनाने के बाद उसने हाल ही में महाराष्ट्र और तमिलनाडु में अपनी डील साइन कर दी है और अब उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े मैदान पर अपना दिमाग लगाने वाली है।
दोनों बड़ी पार्टियां जिस भी मंशा से गठबंधनों में आ रही हैं। उसमें एक बात समान है कि दोनों ही बड़ी पार्टियां जाति, सीट और क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमाकर न केवल पोल पर कब्जा करना चाहती हैं बल्कि सरकार बनाने की संभावना भी बढ़ाना चाहती हैं।
14 बड़े राज्य हैं (जिसमें 10 या अधिक संसदीय सीटों वाले राज्य) जहां 411 संसदीय सीटें (कुल का लगभग तीन-चौथाई) हैं और पार्टियां यहां काफी ताकत झोंक रही हैं। ऐसे में इनको हमें चार भागों में समझने की जरूरत है कि कहां गठबंधन ज्यादा प्रभावी है।
इसमें असम, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक और महाराष्ट्र शामिल है जहां 114 संसदीय सीटें कवर होती हैं।
हरियाणा में न तो भाजपा और न ही कांग्रेस INLD के साथ तालमेल बनाने की कोशिश कर रही है जिससे कांग्रेस के लिए एक फायदा है। कांग्रेस ने झारखंड, कर्नाटक और महाराष्ट्र में गठबंधन को सील कर दिया है। दूसरी ओर, बीजेपी ने असम में एक महत्वपूर्ण सहयोगी खो दिया है।
आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु इसमें गिने जा सकते हैं जहां एक साथ 68 संसदीय सीटें हैं। आंध्र प्रदेश कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियों का दबदबा देखा गया है। लेकिन अगर गठबंधन की बात करें तो बीजेपी के लिए पोस्ट पोल गठबंधन के लिए दरवाजे बंद दिखाई दे रहे हैं।
तमिलनाडु में कांग्रेस फ्रंट-रनर डीएमके को फोलो करने जा रही है जबकि भाजपा ने हाथ थामा है AIADMK का। कई राजनैतिक विश्लेषकों का कहना है कि इससे कांग्रेस और डीएमको को फायदा हो सकता है।
केरल, पंजाब और तेलंगाना ऐसे राज्यों में शामिल है जो 46 संसदीय सीटें कवर करती हैं। इन राज्यों में, भाजपा की सबसे अच्छी उम्मीदें टीआरएस के साथ चुनाव जुड़ी हुई हैं।
केरल में भाजपा का कोई बड़ा दोस्त नहीं रहा है और इसके लंबे समय से चले आ रहे पंजाब के वरिष्ठ सहयोगी की तकलीफें सुकून से दूर हैं। कांग्रेस इस बीच, पंजाब में सहज दिखाई दे रही है और केरल में अपने अवसरों की कल्पना करेगी।
बिहार, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जहां कुल मिलाकर 183 संसदीय सीटें हैं। गठबंधन की दृष्टि से इन राज्यों में आने पर भाजपा सबसे ऊपर नहीं होगी और ना ही कांग्रेस लगती है। यहां पर क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा हो सकता है।
बिहार में, बीजेपी ने नीतीश कुमार और रामविलास पासवान को बहुत कुछ दिया है। दोनों ही तरह से फ्लॉप हो गए हैं और नीतीश का जेडी-यू से वोट ट्रांसफर शायद उतना कारगर नहीं हो सकता जितना कि लगता है।
ओडिशा और पश्चिम बंगाल में, भाजपा के पास बहुत कम संख्या में समर्थन है और वह अकेले तृणमूल और बीजेडी के साथ (या बड़े पैमाने पर अप्रयुक्त साझेदारों के साथ गठबंधन में) का सामना करेगी।
और, उत्तर प्रदेश में, बीएसपी-एसपी-आरएलडी के गठबंधन के रूप में भाजपा के लिए यह आसान नहीं होगा। अगर कांग्रेस की गठबंधन रणनीति में कोई खराबी हो सकती है, तो यह उत्तर प्रदेश है। जहां गड़बड़ी कांग्रेस के लिए दुविधा भी है।
प्रियंका गांधी वाड्रा को शामिल करने का कांग्रेस को फायदा हो सकता है लेकिन 2019 के दृष्टिकोण से, यह केवल तभी काम करेगा जब कांग्रेस बीएसपी-एसपी कोर वोट की तुलना में बीजेपी के सवर्ण वोटों को अपनी ओर खींचेगी।
जो फिलहाल कठिन लग रहा है। निश्चय ही प्रियंका वास्तव में बीएसपी-एसपी-आरएलडी गठबंधन में कांग्रेस के लिए अधिक सम्मानजनक स्थान को तलाश कर सकती हैं। और अगर ऐसा होता है तो यह सबसे बड़ा मास्टरस्ट्रोक होगा
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