भाजपा की सोच क्या है इस बारे में तो पता नहीं, पर वे जो 75 से अधिक उम्र के नेता है उन्हें टिकट नहीं दे रहे हैं और देना भी नहीं चाहते हैं। उनके इस कदम से कई राजनीतिक दलों में विरोध के स्वर देखने को मिल रहे हैं जोकि भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में यह विरोध बिल्कुल ही अतार्किक नजर आ रहा है। यह तो पार्टी को पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? पर एक नजरिये से उनका फैसला अन्य पार्टियों द्वारा सकारात्मक रवैया वाला होना चाहिए, अगर आप भारत का उज्ज्वल भविष्य चाहते हैं तो।
क्या आडवाणी, क्या जोशी, सब तो उम्रदराज है और इनका राजनीतिक सफर काफी लंबा रहा है। ऐसे में यदि खुद ही संन्यास ले लें तो क्या हर्ज? बल्कि पार्टी की नई पीढ़ी के लिए वे सही समय पर खुद ही रिटायरमेंट ले लेते तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ता और नए पीढ़ी को इन अनुभवी लोगों से बहुत कुछ सीखने को मिलता। यही नहीं ये युवा फौज भी उनका सम्मान करती और उनके सानिध्य में रहकर अपनी कमजोरियों को दूर कर सकती है।
भारत में लोकतंत्र का इतिहास नया है। क्या हो प्रतिनिधि की उम्र? क्या हो उनकी शिक्षा? कितनी बार सांसद या विधायक चुना जाए या हार के बाद क्या दोबारा चुना जाए या नहीं? कभी किसी ने ऐसे प्रश्नों पर ध्यान आकर्षित किया ही नहींं। आखिर क्यों नहीं हुई इन तथ्यों पर चर्चा।
शायद लोग अधिक उम्र के बाद भी अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और स्वार्थों को त्यागना ही नहीं चाहते हैं। जहां तक भारतीय राजनीतिक पार्टियों का इतिहास देखें तो उनमें कोई बड़ा बदलाव अब तक देखने को नहीं मिला है। वही पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं और यदि कोई बदलाव करना चाहते हैं तो कुछ लोग ताकत, पैसा और अपनी छवि के दम पर अलग दल बना लेते हैं।
यदि किसी बाहुबली को अपने हितों में टकराहट नजर आये तो विद्रोही बन जाते हैं और दूसरी पार्टी में चले जाते हैं। पार्टी के वे कार्यकर्ताओं जो वर्षों से जमीनी स्तर पर कार्य करते हैं उन्हें दरकिनार भी किया जाता है क्योंकि पार्टी उन के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं या जिसके पास ताकत व पैसा नहीं उसे टिकट ही नहीं देती है।
इतिहास में भी हुए, अधिक उम्र में सत्ता पर काबिज रहने वाले शासकों के विरुद्ध विद्रोह
यह सत्य है भारत में परिवारवाद, उम्र, क्षेत्र में पैठ और अनुभव के चलते युवाओं को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिलता है। देखा नहीं एक ही परिवार की कई पीढ़ियां राजनीतिक में एक साथ चुनाव लड़ रही है। यदि बाप सांसद के चुनाव लड़ रहा है तो बेटा—बहु विधानसभा की पारी संभाले हुए है। युवा बेचारे ताउम्र पार्टी के लिए कार्य करते हैं और जमीनी पकड़ होने के बाद भी वे परिवारवाद की भेंट चढ़ जाते हैं। यदि कोई विरोध करे तो पार्टी उसके लिए बाहर का रास्ता दिखा देती है। यही कारण है कि परिवारवाद के चलते कई नेता आज भी अनेक बार चुनाव जीतने और हारने के बाद भी लगातार अपने क्षेत्र से दावेदारी पेश करते हैं और चुनाव भी जीतते हैं।
अभी भारतीय राजनीति में रिक्त स्थान को भरने वालों की कमी है लेकिन एक समय बाद उन्हें चुनौति अवश्य मिलेगी क्योंकि इतिहास गवाह है।
युवा पीढ़ी को मौका नहीं मिला तो वे भी उस युवराज की तरह मन ही मन छटपटाते हैं जब राजा अधिक उम्र व कमजोर हो जाने के बाद भी अपनी राजगद्दी का मोह नहीं छोड़ते थे। यदि वक्त रहते राजा अपने युवराज के मन में उठ रहे विरोध को समझ पाते और पक्ष में गद्दी त्याग दे तो इतिहास में उत्तराधिकार के युद्ध न होते।
ये तो लोकतंत्र है। आखिर कब तक आप युवा पर अनुभव और उम्र का बोझ बनोगे। उन्हें कब अपने अनुभवों को सीखाओगे। हां आपने कई बार चुनाव जीते हैं और खूब सत्ता भोगी है। अब उन युवाओं को मौका दो और बिना चुनाव लड़े उन्हें अपना अनुभव बांटो। तभी एक अच्छे प्रतिनिधि दे पाओगे नहीं तो वही सत्ता लोलुप और अपने लोगों को खुश करने वाले लोग होंगे जो उन्हें अपनी अंगुलियों पर नचायेंगे।
नेतृत्व में चुनाव हारा, तो जनाधार को नकारे नहीं मुखिया
कब मौका नहीं दिया गया उन्हें जो पार्टी के बड़े चेहरे थे। पर उनकी छवि में वो दम कहां था जो सत्ता में आ सके। जब आप पार्टी के बड़े चेहरे हो और आपके नेतृत्व में पार्टी चुनाव लड़ती है। ऐेसे में पार्टी बहुमत में नहीं आती है तो एक जिम्मेदार होने के नाते आपको पार्टी की नि:स्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए और युवाओं की एक मजबूत टीम को प्रशिक्षित करना चाहिए जो जनता के बीच जा सके और उनकी पीड़ा को जान सके।
ऐसा नहीं वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव अगर याद हो तो भारतीय जनता पार्टी ने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में ही लड़ा था परंतु पार्टी की दुदर्शा से शायद वे परिचित होकर भी अंजान बने रहे। अगर सच्चे अर्थों में उन्होंने वक्त की मांग को जाना होता और उसी समय आगे चुनाव न लड़ने का संकल्प दोहराया होता तो पिछले लोकसभा में उनको इतनी जिल्लत का सामना नहीं करना पड़ता।
अगर वे पार्टी और युवा पीढ़ी को आगे लाने व अपने अनुभवों बांटने के लिए करते तो शायद आज उनके लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं में बहुत सम्मान होता।
कितना सही है बीजेपी के उम्रदराज को दरकिनार करने पर पार्टियों का विरोध
बीजेपी ने कई उम्रदराज नेताओं को इस बार टिकट नहीं दिया और जता दिया कि वे युवा को आगे लाना चाहते हैं, पर इसकी उम्र सीमा और कम करने की जरूरत थी।
जिस प्रकार विरोधी पार्टियों ने इस मुद्दे पर कहा है उससे तो साफ नजर आता है कि कोई भी पार्टी युवाओं को मौका देने के पक्ष में नजर नहीं आ रही है। अन्यथा इसमें किसी का अपमान जैसा कुछ नहीं है यदि व्यक्ति वक्त की मांग को नहीं समझे तो। हर कोई इसे उम्रदराज नेताओं का अपमान बता रहा है किसी ने नहीं कहा कि यह भारतीय राजनीति के लिए एक बेहतर कदम हो सकता है।
इससे तो यह सिद्ध होता है कि हमारी संसद में कभी यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि जनप्रतिनिधि की उम्र सीमा क्या हो, जो भारतीय राजनीतिक पार्टियों की संकुचित मानसिकता का प्रतीक है और बाहुबली, धनी, अनुभवी, क्षेत्रीय राजनीति, धर्म—जाति की तुष्टिकरण में योग्य युवा हताश ही रह जाएगा।
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