देश की राजनीति में सिंधिया राजघराने का आज भी बड़ा नाम है। महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से लेकर राजमाता विजयाराजे सिंधिया और वर्तमान की राजनीति में वसुंधरा राजे, यशोधरा राजे और ज्योतिरादित्य ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के नाम को सहेजे हुए हैं। राजघराने की शुरुआती राजनीति के दिनों से ही सभी राजनेता हिंदू महासभा, जनसंघ और अब कुछ बीजेपी में रहकर कांग्रेस विरोधी राजनीति के लिए जाने जाते हैं।
राजमाता विजया राजे सिंधिया का प्रभाव मध्यप्रदेश की राजनीति में आज भी देखा जा सकता है। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भले ही कांग्रेस से की हों, लेकिन उन्होंने एक बार पार्टी छोड़ने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज 12 अक्टूबर को राजमाता विजयाराजे सिंधिया की 103वीं जयंती है। इस खास मौके पर जानिए उनके राजनीतिक और निजी जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें…
विजयाराजे सिंधिया का जन्म वर्ष 1919 में मध्य प्रदेश के सागर में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनका असल नाम लेखा दिव्येश्वरी देवी था। महारानी विजयाराजे भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहीं। मध्य प्रदेश की राजनीति में ग्वालियर के जय विलास महल को हमेशा से केंद्र माना जाता रहा है। आज़ादी के बाद से ही यहां राजघराने-रजवाड़ों की राजनीति होती थी। सिंधिया खानदान का रसूख इतना गहरा रहा कि चाहे परिवार के कुछ नेता कांग्रेस से रहे, पर फिर भी वर्ष 1984 के चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता को भी यहां से हार का सामना करना पड़ा था। रजवाड़ों को जोड़कर भारत के अस्तित्व में आने के बाद से ही सिंधिया परिवार की राजनीति की शुरुआत होती है। जीवाजी राव सिंधिया यहां के आखिरी महाराजा हुए।
रजवाड़ों की राजनीति करने वाले जीवाजी को शुरू से ही लोकतंत्र के विचारों में कोई खास दिलचस्पी नहीं रहीं। वर्ष 1957 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मुलाकात के बाद जीवाजी सिंधिया ने नेहरू के सामने लोकतंत्र की नीतियों पर अपनी नाराजगी जाहिर कीं। आखिरकार जीवाजी के दबाव और रसूख की बदौलत आसानी से उनकी पत्नी विजयाराजे सिंधिया के राजनीतिक सफर की शुरुआत हो गईं। मध्य प्रदेश की गुना सीट से राजमाता विजयाराजे को कांग्रेस ने अपने टिकट पर चुनाव लड़वाया। इसमें उनके सामने चुनाव लड़ रहे हिंदू महासभा के उम्मीदवार को 60 हज़ार वोट से करारी हार का सामना करना पड़ा।
मध्य प्रदेश में पूर्व सीएम और इंदिरा गांधी के करीबी द्वारका प्रसाद मिश्र के कार्यकाल के दौरान ग्वालियर में छात्रों के आंदोलन को सरकार ने गोलियों और लाठीचार्ज कर कुचल दिया था, जिसके बाद डीपी मिश्र से आपसी मतभेद के कारण राजमाता विजयाराजे ने कांग्रेस छोड़ दी। आखिरकार विजया राजे ने जन संघ का हाथ थामा और विधानसभा में विपक्ष की नेता बनीं। वहीं, विजयाराजे और कांग्रेस से नाराज चल रहे नेता गोविंद ने मिलकर डीपी मिश्र की सरकार गिरा दी थी।
25 जनवरी, 2001 को राजमाता के निधन के बाद उनकी वसीयत को लेकर कई विवाद सामने आए। माधवराव और ज्योतिरादित्य को अरबों की संपत्ति से बेदखल होने की नौबत तक आ गई थी। माधवराव सिंधिया के कांग्रेस में चले जाने के कारण वो आखिरी समय तक अपने बेटे से इतनी नाराज थी कि उन्होंने अपनी लिखी वसीयत में अपने बेटे को अंतिम संस्कार में आने तक के लिए साफ़ मना कर दिया था।
माधवराव सिंधिया ने महज 26 साल की उम्र में जीता था पहला चुनाव, जनसंघ ने दिया टिकट
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