भारतीय प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, कवि, पत्रकार व विशेषकर राजस्थान में किसान आंदोलन के ‘प्रणेता’ विजय सिंह पथिक की आज 27 फ़रवरी को 141वीं जयंती है। पथिक पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता की मशाल जलाईं। महात्मा गांधी के ‘सत्याग्रह’ आरंभ करने से बहुत समय पहले ही विजय सिंह पथिक ने ‘बिजोलिया किसान आंदोलन’ का नेतृत्व किया। उनके इस आंदोलन से कई क्रांतिकारी प्रभावित हुए और आंदोलन करने की सीख लीं। इन्होंने किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और अंग्रेज शासन की नाक में दम कर दिया था। इस ख़ास अवसर पर जानिए पथिक साहब के प्रेरणादायी जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक का जन्म 27 फ़रवरी, 1882 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में गुठावली कला गांव में हुआ था। वह एक गुर्जर परिवार से आते थे। इनका वास्तविक नाम भूप सिंह राठी गुर्जर था। भूप सिंह के पिता का नाम चौधरी हमीर सिंह राठी और माता कमल देवी था।
इनके दादा इंद्र सिंह गुर्जर वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हो गए थे, जिनका पथिक के क्रांतिकारी विचारों पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। पथिक की शुरुआती शिक्षा पालगढ़ के प्राइमरी स्कूल में हुईं। इसके बाद वह अपनी बड़ी बहन के पास इंदौर चले गए। इस दौरान इन्होंने ज्यादा पढ़ाई नहीं की, लेकिन उनकी कई भाषाओं पर अच्छी पकड़ हो गईं।
अपनी बहन के पास रहते हुए विजय सिंह पथिक की मुलाकात क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल से हुईं। इसके बाद पथिक सान्याल के क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। बाद में सान्याल ने ही इनका परिचय रास बिहारी बोस से कराया था। क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत समिति’ उन दिनों देश में सशस्त्र क्रांति की योजना बना रही थी। लेकिन इस षडयंत्र का अंग्रेजों को पता चल गया, जिससे इन्हें अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं।
वर्ष 1915 में भूप सिंह उर्फ पथिक को बंदी बनाकर टॉड गढ़ में रखा गया था। एक दिन वे वहां से फरार हो गए और मेवाड़ रियासत में विजय सिंह पथिक के छद्म नाम से रहने लगा। इन्होंने अपने नाम के साथ-साथ अपनी वेश-भूषा को भी बदला और राजस्थान में मेवाड़ियों की तरह रहने लगे। यहां पर इनकी मुलाकात साधु सीताराम दास से हुईं।
सीताराम दास के आग्रह पर विजय सिंह पथिक ने बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व करना स्वीकार किया। इनके नेतृत्व में किसानों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। जागीरदारों द्वारा यहां के किसानों से कई प्रकार की लाग-बाग वसूली जाती थी और उनसे बलात बेगार ली जाती थी। बिजौलिया आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इन अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाना था। वर्ष 1916 में किसानों ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध ‘किसान पंच बोर्ड’ की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष साधु सीताराम दासजी को बनाया गया। यहीं पर इन्होंने ‘विद्या प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। इसके माध्यम से गांव-गांव जाकर लोगों को संगठित किया और किसान आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
यहीं से इन्होंने पत्रकारिता की भी शुरुआत की। गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से इन्होंने बिजौलिया के किसान आंदोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। पथिक के नेतृत्व में बिजौलिया किसान आंदोलन ने जनक्रांति का रूप धारण कर लिया था, जिससे प्रभावित होकर लोकमान्य तिलक ने महाराणा फ़तेह सिंह को किसानों की मांगे पूरी करने के लिए पत्र लिखा। इनके नेतृत्व और कार्यों से न सिर्फ़ तिलक, बल्कि महात्मा गांधी भी बहुत प्रभावित हुए।
गांधीजी ने बॉम्बे में एक सभा में भी विजय सिंह पथिक को आमंत्रित किया था। गांधीजी के साथ हुई इस सभा में निर्णय लिया गया कि राजस्थान में चेतना जागृत करने के लिए वर्धा से एक समाचार पत्र निकाला जाए, जिसकी ज़िम्मेदारी विजय सिंह को सौंपी गयी और वे वर्धा आ गए। वहां से इन्होंने ‘राजस्थान केसरी’ नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना शुरू किया, जिसके प्रकाशन का खर्च जमनालाल बजाज ने उठाया।
उन्होंने ‘वीर भारत सभा’ नामक संगठन की स्थापना में योगदान दिया। मेवाड़ सरकार ने प्रतिनिधियों, बिजौलिया जागीरदार के प्रतिनिधियों और किसानों के बीच फरवरी 1922 में समझौता हो गया, जिसके अनुसार किसानों की अनेक मांगे स्वीकार कर ली गईं और कई लाग-बाग को समाप्त कर दिया गया। बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार वर्ष 1922 में आंदोलन समाप्त हुआ।
विजय सिंह पथिक ने ‘राजस्थान सेवा संघ’ की स्थापना की थी। राजस्थान में उन्होंने ‘विधवा विवाह’ करने के लिए जागृति फैलाई और स्वयं भी एक विधवा से विवाह करके मिसाल पेश की। साथ ही इन्होंने बाल विवाह, सती-प्रथा, भेद-भाव और धार्मिक पाखंडो के खिलाफ़ आवाज़ उठाईं।
इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अजमेर से ‘नवीन राजस्थान’ नामक साप्ताहिक पत्र की शुरुआत की। इस पत्र से किसान आंदोलनों को इतना बल मिला कि सरकार के लिए इन आंदोलनों को दबा पाना मुश्किल हो गया था। अंत में हार कर मेवाड़ में ‘नवीन राजस्थान’ पर भी सरकार द्वारा रोक लगा दी गईं।
क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक ने अपना ज़्यादातर लेखन-कार्य कारावास में रहने के दौरान ही किया। इन्होंने ‘तरुण मेरु’, ‘पथिक प्रमोद’ (कहानी-संग्रह), ‘पथिक जी के जेल के पत्र’ और ‘पथिक जी की कविताओं का संग्रह’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं। भारत को आज़ादी मिलने के बाद भी आम लोगों के अधिकारों के लिए उनकी लेखनी प्रखर रहीं। पथिक की स्मृति में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया।
‘राजस्थान केसरी’ और ‘राष्ट्रीय पथिक’ जैसी उपाधियों से अलंकृत विजय सिंह पथिक का निधन राजस्थान के अजमेर में 28 मई, 1954 को हुआ।
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